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अध्यक्षीय भाषण: बेलगाँव कांग्रेसमें

जो बराबरीका दरजा दिया गया है, उसके बारेमें कुछ ज्यादा कहने की जरूरत नहीं। मैं इस स्थितिको बचा सकता तो बड़ा अच्छा होता-- इसलिए नहीं कि स्वराज्यवादी दल इसके लायक नहीं है, बल्कि इसलिए कि कौंसिल प्रवेशके सम्बन्धमें उसके विचारसे मैं सहमत नहीं हूँ। लेकिन अगर मेरे लिए यह जरूरी हैं कि मैं कांग्रेसमें रहूँ और उसका नेतृत्व करूँ तो मेरे पास इसके सिवा कोई चारा नहीं कि जो बातें मेरी आँखोंके सामने मौजूद हैं, उनको स्वीकार करके चलूँ। मेरे लिए यह बहुत आसान बात थी कि मैं कांग्रेससे निकल जाऊँ या अध्यक्ष बननेसे इनकार कर दूँ। मगर मैंने सोचा और अब भी सोचता हूँ कि ऐसा करना देशके हकमें अच्छा नहीं होगा। कांग्रेसमें स्वराज्यवादी दलका बहुमत चाहे न हो किन्तु कमसे-कम एक अल्पमत-पक्षके रूप में तो उसकी स्थिति काफी मजबूत है और दिन-दिन उसका जोर बढ़ता जा रहा है। इसलिए अगर मुझे यह मंजूर नहीं था कि उसके दर्जेके सवाल पर कांग्रेसमें मत-विभाजन हो तो मैं उसकी शर्तोको स्वीकार करनेके लिए मजबूर था, बशर्ते कि वे मेरी अन्तरात्माको अमान्य न हों। मेरी रायमें वे शर्ते बेजा नहीं हैं। स्वराज्यवादी अपनी नीतिको सफल बनानेके लिए कांग्रेसके नामका उपयोग करना चाहते हैं। अब एक ऐसा तरीका खोजना था कि जिससे एक ओर उनका काम निकले और दूसरी ओर अपरिवर्तनवादियों को उनकी नीतिके साथ बँधना न पड़े। इसका एक तरीका यह था कि उनको अपनी नीतिकी रचना करने और उसको लागू करनेके लिए काम करने और पैसा जुटानेकी पूरी सत्ता और जिम्मेदारी दे दी जाये। पूरी कांग्रेस अपने सिर कुछ जिम्मेदारियाँ लिये बिना उस नीतिका संचालन नहीं कर सकती थी। और चूँकि मैं यह जिम्मेवारी अपने ऊपर नहीं ले सकता था, और लगता है, कोई भी अपरिवर्तनवादी ऐसा नहीं कर सकता, इसलिए मैं उनकी नीतिकी रचना करनेमें शरीक नहीं हो सकता था। इसके अलावा जिस नीतिको मेरा सम्पूर्ण हृदय स्वीकार नहीं करता, ऐसी नीतिकी रचना भी मैं कैसे कर सकता था? और हृदय तो उसी चीजको स्वीकार कर सकता है, जिसमें आदमीका विश्वास हो। मैं जानता हूँ कि एक स्वराज्यवादी दलको ही विधानसभामें अपने कार्यक्रमको चलानेके लिए कांग्रेसके नामका उपयोग करनेकी सत्ता देनेसे कांग्रेसमें शामिल होनेको इच्छुक बाकी दलोंकी स्थिति अटपटी हो जाती है। लेकिन मैं समझता हूँ कि इससे कोई छुटकारा न था। स्वराज्यवादी दलसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह अपनी वर्तमान सुविधाजनक स्थितिका त्याग कर दे। आखिरकार वह इस स्थितिका उपयोग अपने स्वार्थके लिए नहीं, बल्कि देशकी सेवाके लिए ही तो करना चाहता है। सब दलोंकी यही एक महत्त्वाकांक्षा है और हो सकती है, दूसरी नहीं। इसलिए मैं उम्मीद करता हूँ कि दूसरे तमाम दलोंके लोग कांग्रेसमें शरीक होकर उसके भीतरसे देशकी राजनीतिपर अपना असर डालनेके लिए काम करेंगे। डा० बेसेंटने इस मामलेमें कदम आगे बढ़ा कर औरोंको रास्ता दिखाया है। मुझे मालूम है कि ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें वे और तरहसे कराना चाहतीं, मगर वे इस आशासे कांग्रेसमें शामिल होकर सन्तुष्ट हैं कि उसके अन्दर काम करके वे मतदाताओं को अपने मतका