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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कायल कर सकेंगी। मेरी तुच्छ सम्मतिमें अपरिवर्तनवादी भी शुद्ध हृदयसे इस समझौतेके हकमें राय दे सकते हैं। जिस राष्ट्रीय कार्यक्रमपर देशके तमाम दलोंको मिलकर काम करना है, वह सिर्फ खादी, हिन्दू-मुस्लिम एकता और हिन्दुओंके बीच अस्पृश्यता-निवारणका ही कार्यक्रम है। और क्या यहीं वे बातें नहीं हैं, जिन्हें वे सब करना चाहते हैं?

विशुद्ध सामाजिक सुधार?

इसपर कुछ लोगोंका कहना है कि इस कार्यक्रमके मंजूर करनेसे कांग्रेस विशुद्ध रूपसे एक समाज-सुधारक संस्था बन जायेगी। मैं इस रायसे सहमत नहीं हूँ। स्वराज्यके लिए जो-जो बातें निहायत जरूरी हैं, वे महज सामाजिक बातें नहीं हैं। उनका महत्त्व उससे कहीं अधिक है और कांग्रेसको उन्हें जरूर अपनाना चाहिए। इसके अलावा, यह तो किसीने नहीं कहा है कि कांग्रेस अपनी तमाम शक्ति हमेशा सिर्फ इसी काममें लगाती रहे। हाँ, यह मंशा अवश्य है कि कांग्रेस आगामी वर्षमें अपनी तमाम शक्ति रचनात्मक कार्यमें, जिसे मैंने आन्तरिक विकासका कार्य कहा है, लगा दे।

और यह बात भी नहीं कि कांग्रेसको इस समझौतेमें जिन रचनात्मक कार्योंका उल्लेख है सिर्फ उन्हींको हाथमें लेना चाहिए। जिन कार्योंकी चर्चा मैं करने जा रहा हूँ वे भी बड़े महत्त्व के हैं, लेकिन चूँकि उनके बारेमें कोई मतभेद नहीं है और वे स्वराज्य प्राप्तिके लिए उक्त तीन कार्योंकी तरह नितान्त आवश्यक नहीं हैं, इसलिए समझौतेमें उनका जिक्र नहीं किया गया है।

राष्ट्रीय शालाएँ

ऐसा एक कार्य है, राष्ट्रीय शालाओंको कायम रखना। शायद जनताको वह बात मालूम न हो कि खादीके बाद जिस काममें सबसे अधिक सफलता मिली है, वह राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओंको चलाने का काम ही है। जबतक थोड़े भी विद्यार्थी रहेंगे, ये संस्थाएँ बन्द नहीं की जा सकतीं। ऐसे स्कूलों और कालेजोंको रखना प्रत्येक प्रान्तको अपने लिए प्रतिष्ठाका प्रश्न बना लेना चाहिए। असहयोग मुल्तवी कर देनेका इन संस्थाओं-पर कुछ भी बुरा असर न होना चाहिए। बल्कि इन्हें कायम रखने और इनकी स्थिति मजबूत बनानेके लिए पहलेसे भी ज्यादा कोशिश होनी चाहिए। अधिकांश प्रान्तोंके अपने-अपने राष्ट्रीय स्कूल और कालेज हैं। अकेले गुजरातमें एक ऐसा राष्ट्रीय विद्यापीठ है जिसपर सालाना १,००,००० रुपया खर्च किया जाता है और जिसके अधीन ३ कालेज और ७० स्कूल चल रहे हैं, जिनमें ९००० विद्यार्थी हैं। अहमदाबादमें उसने अपने लिए जमीन भी खरीद ली है और मकान बनवाने में २,०५,३२३ रुपये खर्च कर चुका है। सारे देशमें चुपचाप सबसे अच्छा काम इन असहयोगी विद्यार्थियोंने ही किया है। उन्होंने बहुत अधिक और उच्च कोटिका त्याग किया है। दुनियवी खयालसे शायद उन्होंने अपने शानदार भविष्यको नष्ट कर दिया है। पर मैं उनसे कहूँगा कि राष्ट्रीय दृष्टिसे उन्हें नुकसानके बनिस्बत फायदा ही अधिक हुआ है। उन्होंने सरकारी विद्यालयों को इसलिए छोड़ा कि उन्हींके जरिये पंजाबमें हमारे देशके युवकोंको अपमानित और तिरस्कृत किया गया था। इन्हीं संस्थाओंमें हमारी गुलामीकी जंजीरकी