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अध्यक्षीय भाषण: बेलगाँव कांग्रेसमें

पहली कड़ी तैयार की जाती है। इधर हमारी राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाएँ, चाहे इनका प्रबन्ध और संचालन कितना भी ढीला हो, उन कारखानों-की तरह हैं जहाँ हमारी आजादीके पहले हथियार ढाले जाते हैं। आखिरकार इन राष्ट्रीय संस्थाओंमें पढ़नेवाले लड़कों और लड़कियोंपर ही तो हमारी भविष्यको आशा टिकी हुई है। इसलिए मैं इन राष्ट्रीय संस्थाओंको कायम रखना प्रान्तोंकी सबसे पहली जिम्मेवारी मानता हूँ। लेकिन ये राष्ट्रीय संस्थाएँ तभी सच्ची राष्ट्रीय संस्थाएँ हो सकती हैं जब वे हिन्दू-मुस्लिम एकताको उत्तेजन देनेवाले केन्द्र बन जायें। इसी तरह उन्हें हिन्दू लड़कों और लड़कियोंमें अस्पृश्यताको हिन्दूधर्मका कलंक और मानवताके प्रति अपराध माननेकी भावना जागृत और पोषित करनी चाहिए। इन्हें कुशल कतैये और बुनकर तैयार करनेवाले प्रशिक्षण केन्द्रों का काम करना चाहिए। अगर चरखे और खादी की शक्तिमें कांग्रेसका विश्वास कायम रहता है, तो इन संस्थाओंसे क्रमश: कताईका एक पूरा शास्त्र तैयार कर देनेकी आशा रखना भी अनुचित न होगा। इन्हें खादी तैयार करनेवाले कारखाने का भी काम करना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं कि इन लड़के-लड़कियोंको किसी प्रकारकी किताबी शिक्षा न दी जाये। पर मैं ऐसा अवश्य मानता हूँ कि दिमागी तालीम के साथ-साथ हाथ और हृदयकी शिक्षा भी मिलनी चाहिए। किसी भी राष्ट्रीय विद्यालयकी खूबी और उपयोगिताकी परख उसके छात्रोंकी महान् साहित्यिक उपलब्धियोंसे नहीं; बल्कि इस बात से होगी कि उसके छात्रोंमें राष्ट्रीय चरित्रका निर्माण कितना है, उनमें धुनकी, चरखा और करघा चलानेकी कितनी निपुणता आई है। इसलिए एक ओर जहाँ मैं इस बातके लिए बड़ा उत्सुक हूँ कि कोई भी राष्ट्रीय विद्यालय बन्द न हो, वहाँ दूसरी ओर मुझे उस पाठशालाको बन्द करनेमें जरा भी हिचकिचाहट न होगी, जो गैर-हिन्दू लड़कोंको भरती करने की ओरसे उदासीन हो या जिसने अछूत बालकोंके लिए अपने दरवाजे बन्द कर रखे हों अथवा जिसमें धुनना और कातना शिक्षाके अनिवार्य विषय न हों। अब वह समय चला गया जब हम पाठशालाके साइन-बोर्ड पर सिर्फ "राष्ट्रीय" शब्द पढ़कर और यह जानकर कि उसका किसी भी सरकारी विद्यालयसे सम्बन्ध नहीं है और उसकी व्यवस्थामें सरकारका कुछ भी हाथ नहीं है, सन्तोष मान सकते हैं। मुझे यहाँ इस बातकी ओर भी इशारा कर देना चाहिए कि बहुतेरी राष्ट्रीय संस्थाओंमें आज भी देशी भाषाओं तथा हिन्दुस्तानीके प्रति उपेक्षा रखनेकी प्रवृत्ति देखी जाती है। बहुत-से शिक्षक देशी भाषाओं या हिन्दुस्तानीके माध्यमसे शिक्षा देनेकी आवश्यकता समझ नहीं पाये हैं। मुझे यह देखकर बड़ी खुशी होती है कि श्री गंगाधररावने राष्ट्रीय शिक्षा-शास्त्रियोंकी एक बैठकका आयोजन किया है, जिसमें मेरी बताई अनेक बातोंके सम्बन्धमें सब एक-दूसरेको अपने-अपने अनुभव बतायेंगे और सम्भव हुआ तो शिक्षा और कार्यके लिए एक सर्वसामान्य योजना भी तैयार करेंगे।

बेकार असहयोगी

राष्ट्रके आह्वानपर जिन वकीलोंने वकालत छोड़ दी और जिन शिक्षकों और दूसरे सरकारी नौकरोंने अपनी सरकारी नौकरियाँ छोड़ दीं, मैं समझता हूँ, उनका उल्लेख