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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करनेका प्रसंग अब आ गया। मैं जानता हूँ कि ऐसे बहुतसे लोग हैं, जिन्हें अपनी गुंजर करना मुश्किल हो रहा है। वे हर तरहसे राष्ट्रकी ओरसे सहायता पानेके योग्य हैं। दो ऐसे काम हैं--एक तो खादी बोर्डका और दूसरा राष्ट्रीय स्कूलों और कालेजोंका काम---जिनमें सीखने और मेहनत करनेको तत्पर तथा थोड़ेमें सन्तोष करनेवाले, असंख्य ईमानदार और उद्यमी लोगोंको खपा लेनेकी क्षमता है। मैं देखता हूँ कि लोगोंमें राष्ट्रीय सेवाके निमित्त बिना कुछ लिए काम करने की प्रवृत्ति है। उनकी अवैतनिक काम करने की इच्छा, निस्सन्देह, सराहनीय है, लेकिन सब लोग ऐसा नहीं कर सकते। हर श्रमिक अपने श्रमके मूल्यका अधिकारी है। कोई भी देश अपना सारा समय देनेवाले अवैतनिक कार्यकर्त्ता हजारोंकी तादादमें पैदा नहीं कर सकता। इसलिए हमें ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिए जिसमें कोई भी देश-सेवक देशकी सेवा करने और उसके बदले वेतन स्वीकार करनेमें अपनी इज्जत समझे।

नशीली चीजें

राष्ट्रीय महत्त्वका एक और विषय है अफीम और शराबका व्यापार। मद्यपान-निवारणके प्रति सन् १९२१ में देशमें उत्साहकी जो लहर इस छोरसे उस छोरतक फैली हुई थी, वह यदि शान्तिपूर्ण बनी रहती तो इस क्षेत्रमें आज हमें दिन-ब-दिन प्रगति देखनेको मिलती। लेकिन दुर्भाग्यसे हमारी धरनेदारीमें हिंसाकी वृत्ति आ गई। जहाँ इसने खुली हिंसाका रूप नहीं लिया, वहाँ भी यह भीतर-ही-भीतर हिंसात्मक हो उठी थी। इसलिए धरना देना बन्द कर देना पड़ा और अफीम तथा शराबकी दुकानें फिर पहलेकी तरह फूलने-फलने लगीं। लेकिन यह सुनकर आपको खुशी होगी कि मद्यपान-निवारणका काम बिलकुल बन्द नहीं हो गया है। बहुत-से कार्यकर्त्ता आज भी चुपचाप निःस्वार्थ भावसे इस काममें लगे हुए हैं। इतना होते हुए भी हमें यह जान लेना चाहिए कि जबतक स्वराज्य न मिलेगा, हम इस बुराईको दूर न कर सकेंगे। हमारे लिए यह कोई गर्व की बात नहीं है कि ऐसे अनीतिमूलक कार्योंकी आमदनीसे हमारे बच्चोंको शिक्षा दी जाती है। कौंसिलोंमें जानेवाले सदस्य यदि साहस दिखाकर इस आमदनीको बिलकुल ही बन्द करा दें तो मैं उन्हें विधान-सभाओंमें जानेके लिए लगभग माफ कर दूँगा। इसके परिणामस्वरूप अगर शिक्षण संस्थाओंको पैसे न मिलें, तो भी मुझे कोई परवाह नहीं। लेकिन यदि उसी अनुपातमें फौजी खर्चमें कमी करानेपर आग्रह रखेंगे तो शिक्षा संस्थाओंको भी ऐसी किसी कठिनाईका सामना न करना पड़ेगा।

बंगालका दमन

आपने यह देखा होगा कि अबतक मैंने जो-कुछ कहा, सिर्फ देशके आन्तरिक विकासके सम्बन्धमें ही कहा।

लेकिन बाहरी परिस्थितियाँ और उसमें भी खासकर हमारे शासकोंके काम हमारे ध्येयपर उतना ही निश्चित (यद्यपि शायद प्रतिकूल ही) प्रभाव डाल रहे हैं, जितना कि आन्तरिक विकास। यदि हम चाहें तो उनके कार्योंसे फायदा उठा सकते