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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करते हुए वेदादिको मानना, पुनर्जन्ममें विश्वास रखना और 'गीता', गायत्री आदिमें श्रद्धा होना आदि लक्षण बताये गये हैं। फिर भी सामान्य हिन्दुओंके लिए तो मैंने गो-रक्षाका प्रेम ही हिन्दुत्वका मुख्य लक्षण ठहराया है। कोई पूछे कि दस हजार वर्ष पहले हिन्दू क्या करते थे? बड़े विद्वान् और पण्डित कहते हैं कि वेदादि ग्रंथों में गो-मेधकी बात है। छठे दर्जेमें पढ़ते हुए मैंने संस्कृत पाठशालामें 'पूर्व ब्राह्मणाः गवां मांसं भक्षयामासुः' यह वाक्य पढ़ा था और मैंने मनसे पूछा था कि क्या यह सच होगा? ऐसे वाक्योंके बावजूद मैं मानता आया हूँ कि वेदमें ऐसी बात लिखी हो तो शायद उसका अर्थ यह न रहा होगा जो हम करते हैं---दूसरी बात भी सम्भव है। मेरे अर्थके अनुसार अथवा मेरी आत्माकी प्रतीतिके अनुसार---मेरे पास पाण्डित्य अथवा शास्त्रीय ज्ञानका आधार नहीं है, आत्माकी प्रतीतिका ही आधार है---ऊपर कहे हुए वचनों-जैसे वचनोंका दूसरा अर्थ न हो तो ऐसा होना चाहिए कि वे ही ब्राह्मण गो-भक्षण करते थे, जो गायको मारकर उसे फिर जिला सकते थे। मगर ऐसे वाद-विवादके साथ हिन्दू जनताका कुछ भी सरोकार नहीं। मैंने वेदादिका अध्ययन नहीं किया और अधिकतर संस्कृत ग्रंथोंको मैं अनुवादसे ही जानता हूँ, इसलिए मेरे-जैसा प्राकृत मनुष्य इस विषयमें क्या बात करे? मगर मुझे आत्म-विश्वास है और इसलिए मैं अपने अनुभवकी बात हर जगह किया करता हूँ। गो-रक्षाका अर्थ ढूँढ़ने जायेंगे तो शायद हमें कहीं भी एक अर्थ न मिले, क्योंकि हमारे धर्ममें कलमे-जैसी सर्वमान्य कोई एक चीज नहीं है और पैगम्बर भी नहीं है। इससे शायद हमारा धर्म समझनेमें कठिनाई पड़ती है। परन्तु उससे आसानी भी होती है, क्योंकि बहुत-सी बातें हिन्दू जनतामें स्वाभाविक रीतिसे प्रवेश कर गई हैं। बालक भी समझता है कि हमें गो-रक्षा करनी चाहिए और गो-रक्षा न करें तबतक हम हिन्दू कैसे?

मगर गो-रक्षा करनेकी आजकलकी रीति मुझे पसन्द नहीं। हमारा गो-रक्षाका मौजूदा तरीका देखकर मेरा दिल अकेलेमें रोता है। रोना मुझे पसन्द नहीं। कोई रोये तो मुझे दुःख होता है, क्योंकि हमें भारी बलिदान करने हैं और भारी बलिदान करनेवाले रोकर क्या हासिल करेंगे? फिर भी मेरा दिल गो-रक्षाके अर्थपर रोता है। कुछ वर्ष पहले मैंने 'हिन्द स्वराज्य' में लिखा था कि हमारे गो-रक्षक मण्डलोंको गो-भक्षक मण्डल कहा जा सकता है।[१] उसके बाद सन् १९१५ में हिन्दुस्तान आ जाने के बादसे आजतक मेरी यह राय पुख्ता ही होती गई है। ऐसे विचार होनेसे मुझे लगा कि गो-रक्षा-परिषद्का अध्यक्ष मैं क्या बनूँगा और लोगोंको अपने विचार कैसे समझाऊँगा? लेकिन गंगाधररावजीने मुझे तार भेजा कि आप अपनी शर्त पर सभापति बनिये, भाई चिकोड़ीजी आपके विचार जानते हैं और उनसे बहुत- कुछ सहमत हैं। इसलिए मैंने आना मंजूर किया। इतना तो मैंने प्रस्तावना के तौरपर कहा।[२]

  1. देखिए खण्ड १०, पृष्ठ २८-३०।
  2. अंग्रेजी पाठके अनुसार, "अपनी सफाईके तौरपर कहा।"