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बेलगाँव के संस्मरण [---१]

आसानीसे और भी चौड़ी की जा सकती थीं, जिससे वहाँ लगाई गई अस्थायी दुकानों को और हजारों तमाशबीनोंकी भीड़को आमद-रफ्तमें सहूलियत होती। रोशनीका इन्तजाम पूरा-पूरा था। विशाल-सभा-मण्डप और उसके सामने खड़ा संगमरमरी फव्वारा तमाम प्रवेश करनेवालोंको अपनी ओर आकर्षित करता हुआ लगता था। मण्डपमें कमसे-कम १७,००० आदमियोंकी गुंजाइश की गई थी। सफाईका इन्तजाम बहुत अच्छा था, फिर भी उसमें इससे ज्यादा बाकायदगी दरकार थी। इस्तेमाल किये हुए पानीको बाहर निकालनेका तरीका बहुत पुराने जमानेका था। मैं कानपुरके लोगोंका ध्यान इस तरफ खींचना चाहता हूँ। कांग्रेसका १९२५ का अधिवेशन उन्हें अपने यहाँ करनेका सौभाग्य प्राप्त होनेवाला है। उन्हें चाहिए कि वे ऐसे पड़ावोंमें सफाई रखनेके निहायत कारगर तरीकोंपर अभीसे गौर करते रहें और इस बड़े जरूरी कामको ऐन वक्त के लिए न रख छोड़ें।

एक ओर जहाँ मैं बेलगाँव कांग्रेसके लगभग त्रुटिहीन प्रबन्धकी बेहिचक तारीफ करता हूँ, वहाँ दूसरी ओर मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि गंगाधररावजी बाहरी ठाठ-बाटपर खूब रुपया खर्च करने और शीर्षस्थ लोगोंको ऐशो-आरामके साधन मुहैया करनेकी पुरानी परिपाटीके मोहसे अपनेको नहीं बचा सके। सभापतिकी 'झोंपड़ी' को ही लीजिए। मैंने तो एक खादीकी झोंपड़ीका ही सौदा किया था; पर खादीका एक खासा महल ही तैयार करके मेरा अपमान किया गया। सभापतिके लिए जितनी लम्बी-चौड़ी जमीन रखी गई, वह बेशक जरूरी थी। उस 'महल' के चारों ओर जो बाड़ा तैयार किया गया था, वह भी बिलकुल जरूरी था, क्योंकि उसकी बदौलत उन लोगों की भीड़से मेरी रक्षा होती थी, जो मेरे प्रति प्रेम और आदरके कारण मुझे बहुत दिक और परेशान कर सकते थे। लेकिन मैं निश्चयके साथ कहता हूँ कि अगर उसका ठेका मेरे जिम्मे रहता, तो इससे आधे खर्चमें सभापतिके लिए उतनी ही जगह और उतने ही आरामका इन्तजाम कर देता। ऐसी फजूलखर्ची की मैं और भी मिसालें दे सकता हूँ। विषय समितिके सदस्यों तथा अन्य लोगोंके जलपानमें भी ऐसी ही फजूलखर्ची दिखाई देती थी। जो भी चीजें परोसी जाती थीं, उनमें तादादकी कोई भी कैद या लिहाज नहीं रखा जाता था। मैं किसीपर दोषारोपण नहीं कर रहा हूँ। इस फजूलखर्चीकी जड़में दरियादिली ही थी। यह सब शुभ हेतुसे किया गया था। चालीस बरस पुरानी परिपाटी एक दिनमें नहीं टूट सकती---विशेषकर तब, जब कि ऐसा शख्स जिसकी बात लोग सुन सकें, उसपर लगातार टीका-टिप्पणी करते रहने को तैयार न हो। मुझे याद है कि १९२१ में जब मैंने वल्लभभाईसे कहा था कि इस दिशामें आप ही आगे कदम बढ़ायें तो उन्होंने जवाब दिया था कि मैं सादगी लाने और फजूलखर्ची न होने देने की कोशिश तो करूँगा, पर अपने प्रिय गुजरातको कंजूस कहलाने का अवसर भी नहीं देना चाहूँगा। मैं उन्हें यह बात नहीं समझा सका कि यदि वे कई हजार रुपये खर्च करके अस्थायी फव्वारा न बनवायेंगे तो कोई उन्हें कंजूस न कहेगा। मैंने उनसे यह भी कहा था कि वे जो कुछ करेंगे उसका अनुकरण, आगे यह जिम्मेवारी जिनके सिर आयेगी, वे भी करेंगे। पर वे