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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कंजूस कहलानेका कलंक अपने सिर लेनेको तैयार नहीं हुए। अब मैं कानपुरको सलाह देता हूँ कि वह इसमें आगे बढ़कर रास्ता दिखाये। हम तो मितव्ययिताकी दिशामें इतना आगे बढ़ना चाहते हैं कि सम्भव है, कानपुरकी आजकी कंजूसी कल फिजूल-खर्ची-जैसी मालूम हो। वल्लभभाईने भी बहुत-सी चीजें छोड़ दी थीं, किन्तु उन चीजोंकी निस्बत, जिनकी कोई महसूस होने लायक जरूरत ही नहीं थी, किसी तरहकी शिकायत मेरे कानमें नहीं पड़ी।

हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि कांग्रेसका मन्शा उन लोगोंका प्रतिनिधि बनना है जो गरीबसे-गरीब हैं, मेहनत-मशक्कत करते हैं और जो भारतके प्राण हैं। सो हमारा पैमाना ऐसा होना चाहिए जो उनको मुआफिक आ सके। इसलिए कम खर्चकी ओर अपना कदम दिन-ब-दिन आगे बढ़ाना होगा, पर इस तरह कि हमारे काममें न तो कोई खामी आये और न कंजूसी ही टपके।

मेरी रायमें रहनेका और खानेका खर्च जो अभी देना पड़ता है, बहुत भारी है। हमें इस मामलेमें स्वामी श्रद्धानन्दजीसे नसीहत लेनी चाहिए। मुझे याद है कि उन्होंने अपने गुरुकुलके १९१६ के वार्षिकोत्सवमें आनेवाले मेहमानोंके लिए किस तरहके छप्पर डलवाए थे। उन्होंने [ मैं समझता हूँ ] कोई दो हजार रुपए लगाकर फूसके छप्पर बनवा डाले थे। उन्होंने ठेकेदारोंसे अहातेके भीतर जलपान-गृह आदि खोलनेको कहा था और दुकानोंके लिए दी गई जगहोंका कोई किराया नहीं लिया था। उस इन्तजामसे किसीको कोई शिकायत नहीं हो सकती थी। लोग जानते थे कि हमें किन-किन चीजोंकी उम्मीद रखनी चाहिए। इस तरह कोई ४०,००० लोग गुरुकुलके अहातेमें बिना किसी तरहकी दिक्कत और प्रायः बिना किसी प्रकारके खर्चके ठहराये गये थे और इससे भी बड़ी बात यह कि वहाँ आनेवाला हर आदमी जैसी सुविधाएँ चाहता था, उसे मिल जाती थीं और वह अपनी मर्जीके मुताबिक थोड़ा या ज्यादा खर्च करके रह सकता था।

मैं यह नहीं कहता कि स्वामीजीकी व्यवस्थाकी हरफ-ब-हरफ नकल की जाये। पर मैं यह जरूर कहता हूँ कि बेहतर और ज्यादा सस्ते इन्तजामकी निहायत जरूरत है। प्रतिनिधियोंकी फीसके १० रुपयेसे घटाकर १ रुपया कर दिये जानेपर[१]सब लोग खुश हुए थे और मुझे यकीन है कि रहने और खानेके खर्चमें कमी करना लोगोंको और भी पसन्द आयेगा।

तो फिर आमदनीकी तदबीर क्या हो? हरएक दर्शकके लिए थोड़ा-सा प्रवेश शुल्क रखा जाये। कांग्रेस अधिवेशन एक तरहका सालाना मेला बन जाना चाहिए, जिसमें दर्शक लोग आयें और मनोरंजनके साथ-साथ शिक्षाप्रद बातें सीखकर जायें। अधिवेशन के विचार-विमर्श या चर्चावाले हिस्सेको केन्द्रीय स्थान दिया जाना चाहिए, और प्रदर्शनात्मक महत्त्वके कार्यक्रम उसीके आसपास गूँथे जाने चाहिए। इसलिए इस सालकी तरह, उसका आयोजन उपयुक्त समयपर होना चाहिए और हर काममें समयकी पाबन्दी निष्ठाके साथ बरती जानी चाहिए।

  1. देखिए "प्रस्ताव: बेलगाँव कांग्रेसमें", २७-१२-१९२४।