मुझे इस बातमें सन्देह है कि दूसरे तमाम सम्मेलनोंको एक ही सप्ताह में जैसे-तैसे निबटा देनेसे किसी राष्ट्रीय अर्थकी सिद्धि होती है। मेरी राय में सिर्फ उन्हीं सम्मेलनोंको कांग्रेस अधिवेशनवाले सप्ताहमें रखना चाहिए, जिनसे कांग्रेसकी ताकत बढ़ती हो और उसे मदद मिलती हो। सभापति और उनके "मन्त्रिमण्डल" से यह अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए कि वे कांग्रेसके कामके अलावा और किसी बातपर ध्यान दें। मैं जानता हूँ कि अगर मुझे अपना वक्त और बातोंमें न लगाना पड़ता तो मैं अपने कामको ज्यादा अच्छी तरह कर पाता। सोचने-विचारनेके लिए मेरे पास थोड़ा भी वक्त नहीं बचता था। इसीसे मैं कताईपर आधारित सदस्यताको सफल बनानेके लिए जरूरी सिफारिशोंका मसविदा तैयार नहीं कर सका। बात यह है कि विभिन्न सम्मेलनोंके आयोजक अपने काममें संजीदगीके साथ नहीं जुटते। वे उनका आयोजन केवल इसलिए करते हैं कि यह एक फैशन बन गया है। मैं विभिन्न क्षेत्रोंके कार्य-कर्त्ताओंसे आग्रह करूँगा कि वे हर साल अपनी शक्ति बरबाद करनेसे बचें।
देशी हुनर और उद्योगकी नुमाइश एक ऐसी चीज है जिसकी बढ़ती साल-दर-साल होनी चाहिए। संगीतके जलसेने हजारों लोगोंका मनोरंजन किया होगा। हमारे सबसे बड़े राष्ट्रीय उद्योगके विनाशके करुण इतिहास और उस उद्योगके पुनरुद्धारकी सम्भावनाओंपर दीप-चित्रों और भाषणोंके जरिए जिस ढंगसे प्रकाश डाला गया, वह बहुत उपयुक्त, शिक्षाप्रद और मनोरंजक था। सतीश बाबूने जिस तरह विचारपूर्वक और सांगोपांग ढंगसे इन भाषणोंका आयोजन किया था, उसके लिए मैं उन्हें बधाई देता हूँ। कताई प्रतियोगिता[१] भी एक स्थायी चीज बन जानी चाहिए। प्रतियोगिता लोगोंको कितनी पसन्द आई, इसका पता उसमें शरीक होनेवाले लोगोंकी तादाद और उसके उम्दा नतीजों तथा उसके लिए अनुदान देनेवालोंकी संख्यासे भलीभाँति लग जाता है। इस चरखा -आन्दोलनकी बदौलत भारतकी स्त्रियाँ पर्दा छोड़कर जिस तरह बाहर निकल रही हैं, उस तरह किसी और उपायसे न निकल पातीं। ११ इनाम पानेवालों में से ४ स्त्रियाँ थीं। इससे उन्हें जो गौरव और आत्मविश्वास मिला है, वह किसी भी विश्वविद्यालयकी उपाधिसे न मिल पाता। वे इस बातको समझती जा रही हैं कि उनकी सक्रिय सहायता भी उतनी ही अपरिहार्य है जितनी कि पुरुषोंकी और इससे भी बड़ी बात यह कि वे यह सहायता, यदि ज्यादा नहीं तो कमसे-कम पुरुषोंके बराबर तो आसानीसे दे सकती हैं।
इन संस्मरणोंको समाप्त करनेसे पहले मैं एक बातका जिक्र किये बिना नहीं रह सकता। कांग्रेसकी छावनीमें संडास वगैरह साफ करनेके काममें कोई ७५ स्वयं-सेवक लगे हुए थे, जिनमें ज्यादातर ब्राह्मण थे। हाँ, नगरपालिकाके भंगी भी जरूर लिये गये थे; परन्तु इन स्वयंसेवकोंका रहना भी जरूरी समझा गया। काका कालेलकर---जिनके जिम्मे यह काम था---कहते हैं कि यह काम उतनी अच्छी तरह न हो पाता, अगर यह स्वयंसेवकोंकी टुकड़ी तैयार न की गई होती। उन्होंने यह भी बताया है कि स्वयंसेवकोंने यह काम खुशी-खुशी किया। उस कामको करनेसे किसीने
- ↑ देखिए "भाषण: कताई-प्रतियोगिताके सम्बन्धमें", २७-१२-१९२५।