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४०६. पत्र: न० चि० केलकरको

साबरमती जाते हुए
२ जनवरी, १९२५

प्रिय श्री केलकर,

यह सदा मेरी इच्छा और नीति रही है कि दूसरोंकी भावनाओंको ठेस पहुँचानेके लिए कुछ न लिखूँ। लेकिन इस वर्ष, जबकि मैं आपको अपने पक्षमें लानेके लिए पूरी कोशिशमें लगा हुआ हूँ, तब तो मैं और भी अधिक सावधान रहना चाहूँगा। मैं जानता हूँ कि बिना चाहे भी मैं ऐसी चीजें लिख सकता हूँ जो आपको अर्थात् कांग्रेसको, अच्छी न लगें। इसलिए यदि 'यंग इंडिया' या 'नवजीवन' में कोई ऐसी चीज प्रकाशित हो, जो उचित न हो तो कृपया मेरा ध्यान उसकी ओर आकृष्ट कर दें। जहाँ भी सम्भव होगा, मैं उसका परिमार्जन करनेका प्रयत्न करूँगा।

हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी

अंग्रेजी पत्र (सी० डब्ल्यू० ३११५) की फोटो-नकल से।

सौजन्य: काशीनाथ केलकर।

४०७. भाषण: दाहोदकी सार्वजनिक सभामें

२ जनवरी, १९२५

कताईके प्रस्तावमें कातनेकी अनिच्छाके सम्बन्धमें जो रियायत दी गई है, मेरी इच्छा है कि उससे कोई गुजराती लाभ न उठाये। मुझे ईश्वरने यरवदा जेलसे भयंकर बीमारीके कारण रिहा करवाया, इसमें मुझे ईश्वरका कोई बड़ा हेतु दिखाई देता है। मुझे लगता है, उसने मुझे इसलिए छुड़वाया है कि मैं देशमें चारों ओर घूम-घूमकर अन्नपूर्णाकी--चरखेकी---चर्चा करूँ और उसका सार्वत्रिक प्रचार करूँ। यदि हिन्दुस्तान अभी भी चरखा कातनेके इस सन्देशको नहीं सुनेगा तो देशमें भुखमरी और बढ़ेगी। दाहोद बम्बई हो जाये, उसमें चार-छः लोग लखपति हो जायें तो इसमें मुझे कोई खुशी न होगी। सबको खाने-पीने और कपड़े पहननेका अधिकार है। लेकिन किसीको धन इकट्ठा करके धनवान बन जानेका हक नहीं है। दाहोदमें चार-छः लोग साहूकार बनें, यह मैं नहीं चाहता। मेरी इच्छा तो यह है कि हम खादी घीकी तरह आसानीसे बेच सकें और वह सिक्कों तथा डाककी टिकिटोंकी तरह जहाँ चाहे वहाँ सुलभ हो जाये। जो लोग सूत नहीं का सकते वे दूसरोंसे कतवाकर सदस्य बन सकते हैं, ऐसी शर्त रखी गई है। लेकिन मैं चाहता हूँ कि इसका लाभ कोई