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अध्यक्षीय भाषण: काठियावाड़ राजनीतिक परिषद् में

स्वराज्य पा चुकनेपर ब्रिटिश भारत देशी रियासतोंको नष्ट करनेकी इच्छा नहीं करेगा, बल्कि उनका सहायक सिद्ध होगा। और देशी रियासतें भी ब्रिटिश भारतके प्रति ऐसा ही रवैया अपनायेंगी।

देशी रियासतोंकी वर्तमान दशा मेरी रायमें कुछ दयनीय है, क्योंकि देशी नरेशोंको कोई स्वाधीनता नहीं है। प्रजाको मृत्यु दण्ड दे सकनेकी शक्ति होना, सच्ची शक्ति होनेका द्योतक नहीं है। सच्ची शक्ति तो अपनी प्रजाको सारी दुनियाके मुकाबले भी सुरक्षित रखनेकी इच्छा और सामर्थ्य में है। आज देशी रियासतों में ऐसी क्षमता नहीं है और परिणामतः धीरे-धीरे वैसा करनेकी इच्छा भी समाप्त ही हो गई है। इसके विपरीत, प्रजापर अत्याचार करनेकी उनकी शक्ति, लगता है बढ़ गई है। चूँकि साम्राज्यमें ही अराजकता फैली हुई है इसलिए साम्राज्यके अधीन जो रियासतें हैं उनमें भी अराजकता है। देशी रियासतोंमें अराजकता देशी नरेशोंके कारण उतनी नहीं है जितनी कि भारतकी वर्तमान दशाके कारण है।

भारतकी वर्तमान दशा चूँकि प्राकृतिक नियमों, अर्थात् ईश्वरीय नियमोंके विरुद्ध है, इसलिए हम सारे देशमें अव्यवस्था और असन्तोष देखते हैं। मेरा निश्चित मत है कि यदि भारतका एक अंग स्वशासित हो जाये तो सब कुछ ठीक हो जायेगा।

आगे कौन बढ़े?

तो फिर पहला कदम कौन उठाये? स्पष्ट है कि भारतको ही पथ-निर्देशन करना होगा। वहाँ लोगोंको अपनी बुरी दशाका भान है और है उससे मुक्ति पानेकी चाह; और चूँकि इच्छासे ही ज्ञान उत्पन्न होता है, इसलिए जो लोग अपने संकटसे मुक्ति पाना चाहते हैं, वे ही उसके साधन ढूँढ़ेंगे और उनका प्रयोग करेंगे। इसीलिए मैंने अकसर कहा है कि ब्रिटिश भारतकी मुक्तिका अर्थ देशी रियासतोंकी मुक्ति भी है। जब ब्रिटिश भारतकी स्वतन्त्रताका शुभ दिन आयेगा तब देशी रियासतों में शासक और शासितका सम्बन्ध समाप्त नहीं होगा, किन्तु वह शुद्ध हो जायेगा। मेरी स्वराज्यकी जो कल्पना है उसका मतलब राजाशाहीका अन्त नहीं है। न उसका मतलब है पूँजीका अन्त। संचित पूँजीका मतलब है, शासनकी शक्ति। मैं पूंजी और श्रम आदिके बीच सही सम्बन्ध स्थापित करने के पक्षमें हूँ। मैं एकके ऊपर दूसरेकी प्रभुता स्थापित नहीं करना चाहता। मैं ऐसा नहीं मानता कि इन दोनोंमें कोई स्वाभाविक बैर है। हमारे बीच अमीर और गरीब हमेशा रहेंगे। लेकिन उनके पारस्परिक सम्बन्धोंमें निरन्तर परिवर्तन होते रहेंगे। फ्रान्स एक गणतन्त्र है, लेकिन फ्रान्समें सभी वर्गोंके लोग हैं।

हमें आकर्षक शब्दोंसे भ्रममें नहीं पड़ना चाहिए। भारतमें जो भी भ्रष्टाचार हम देखते हैं वह हर भ्रष्टाचार पश्चिमके तथाकथित सभ्य देशों में भी उसी प्रमाणमें मौजूद हैं, भले ही उन्हें तरह-तरहके नामोंसे पुकारा जाता हो। दूरीके कारण ही चीजें आँखोंको मोहक लगती हैं; इसीलिए पश्चिमकी हर चीज हमारी आँखोंमें बड़ी चमक-दमकवाली लगती है। वास्तवमें पश्चिममें भी शासकों और शासितोंके बीच अनवरत संघर्ष चलता रहता है। वहाँ भी लोग सुख और खुशीकी तलाश करते हैं और बदलेमें दुःख भोगते हैं।