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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

देशी राज्योंके बारेमें

बहुत-से काठियावाड़ी मुझसे इस सुन्दर देशके राजाओं और सामन्तोंके विरुद्ध शिकायत करते हैं और मेरे रवैयेको मेरी उदासीनता समझकर मुझे आड़े हाथों लेते हैं। अगर मैं कहूँ कि मैं उदासीन नहीं हूँ, बल्कि मैं वर्तमान अव्यवस्थाओंको दूर करनेके उपाय ढूँढ़ता और उन्हें लागू करता रहा हूँ तो मेरे ये अधीर मित्र मेरी यह बात शायद समझ नहीं पायेंगे। मैंने स्वराज्य आन्दोलनमें अपना सब कुछ दाँवपर लगा दिया है, इस आशामें कि स्वराज्य ही सब रोगोंकी अचूक दवा है। जिस प्रकार सूर्योदय होनेपर तिमिरका लोप हो जाता है उसी प्रकार जब स्वराज्यका सूर्य उदित होगा तब शासकों और प्रजाओंकी अराजकताका अँधेरा भी एक क्षणमें तिरोहित हो जायेगा।

यूरोपके प्रवास

देशी रियासतोंकी शासन-व्यवस्थाकी बराबर आलोचना होती रही है और उससे यह छोटा-सा प्रान्त भी बचा नहीं है। नरेशों और सामन्तोंके विरुद्ध जो एक आम शिकायत है वह यह कि यूरोप-यात्रा करनेका उनका चाव दिनों-दिन बढ़ता जाता है। किसी कामसे या ज्ञानोपार्जनके लिए उनका यूरोप जाना तो समझा जा सकता है, किन्तु महज आनन्दकी खोज में यूरोप जाना तो असहनीय लगेगा। यदि कोई नरेश अपना ज्यादातर समय अपने राज्यसे बाहर व्यतीत करता है तो उसके राज्यमें गड़बड़ी फैल जाती है। हमने देखा है कि लोकतन्त्र और ज्ञान -प्रसारके इस युगमें कोई ऐसा राज्य या संगठन जो लोकप्रिय या लोकोपकारी न हो, जिन्दा नहीं रह सकता। भारतकी देशी रियासतें इस नियमके प्रभावसे मुक्त नहीं है। उनके प्रशासनकी तुलना इस समय ब्रिटिश सरकारके प्रशासन से और जब स्वराज्य स्थापित हो जायेगा तब स्वराज्य सरकारके प्रशासनसे हमेशा की जायेगी। इंग्लैंडके राजा जॉर्ज अपने मन्त्रियोंकी सहमति के बिना इंग्लैंडसे बाहर नहीं जा सकते। और इसपर भी उनकी जिम्मेदारियाँ उतनी नहीं हैं जितनी कि भारतीय नरेशोंकी है। भारतीय नरेश सारी ताकत अपने ही हाथोंमें रखते हैं। वे छोटे-छोटे पदोंपर नियुक्तियाँ भी खुद ही करते हैं। एक पुल बनानेके लिए भी उनकी अनुमति लेना जरूरी है। ऐसी हालत में उनकी यूरोप -यात्राएँ उनकी प्रजाके लिए बहुत अरुचिकर होती हैं।

इन यात्राओं पर होनेवाला खर्च भी असह्य होता है। यदि राजाशाहीका एक नैतिक आधार है तो नरेश लोग स्वतन्त्र मालिक नहीं हैं, बल्कि प्रजासे प्राप्त होनेवाले राजस्वके प्रजाकी ओरसे ट्रस्टी मात्र हैं। इस धनको वे केवल न्यास-धनके रूपमें ही खर्च कर सकते हैं। कहा जा सकता है कि ब्रिटिश संविधानमें इस सिद्धान्तको लगभग पूर्णतः कार्यान्वित किया गया है। मेरी नम्र रायमें हमारे नरेशों द्वारा यूरोपमें मुक्त-हस्तसे पैसा उड़ाया जाना किसी भी दृष्टिसे उचित नहीं ठहराया जा सकता।

कभी-कभी यूरोप जाकर इस तरह धन खर्च करने को इस तर्कके आधारपर उचित ठहराया जाता है कि नरेश लोग वहाँ स्वास्थ्य-लाभके लिए जाते हैं। यह दलील बिलकुल हास्यास्पद है। जिस देश में पर्वतराज हिमालयका अखण्ड साम्राज्य हो