पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/६२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५८९
अध्यक्षीय भाषण: कठियावाड़ राजनीतिक परिषद् में

और जिस धरतीको गंगा, सिन्धु और ब्रह्मपुत्र-जैसी प्रबल नदियाँ सींचती हों, उस देश-को छोड़कर स्वास्थ्य-लाभके लिए बाहर जानेकी किसीको जरूरत नहीं है। जिस देशमें करोड़ों लोग पूर्ण स्वास्थ्यका सुख भोगते हों, वहाँ नरेशोंके स्वास्थ्यकी आवश्यकताएँ भी पूरी हो सकती हैं।

पश्चिमकी नकल

लेकिन इन विदेश यात्राओं की सबसे बड़ी हानि तो नरेशों द्वारा पश्चिमकी नकल करनेमें हैं। हमें पश्चिमसे बहुत कुछ सीखना और पाना है, लेकिन वहाँ बहुत-कुछ ऐसा भी है जिसे अस्वीकार ही करना होगा। ऐसा माननेका कोई कारण नहीं है कि जो चीज यूरोपकी जलवायुके अनुकूल है, वह सभी प्रकारकी जलवायुके अनुकूल पड़ेगी। अनुभव हमें बताता है कि प्रत्येक विशिष्ट प्रकारकी जलवायुके लिए कुछ अलग प्रकारकी ही चीजें अनुकूल पड़ती हैं। पश्चिमके तौर-तरीके और रीति-रिवाज पूर्वको मुआफिक नहीं पड़ेंगे और न पूर्वके पश्चिमको। ऐसा कहा जाता है कि पश्चिमी देशोंमें स्त्री-पुरुष साथ मिलकर संयमके साथ नाचते हैं और जैसा कि बताया जाता है, कि यद्यपि वे नाचके बीच मादक द्रव्योंका भी प्रयोग करते हैं, फिर भी वे शिष्टताकी सीमा नहीं लाँघते। मुझे बताने की जरूरत नहीं है कि अगर हम इस प्रथाकी नकल करें तो क्या होगा। उस भारतीय नरेशसे सम्बन्धित घटना हमारे लिए कितनी लज्जाजनक है जिसकी चर्चा आजकल अखबारों में पूरे विस्तार के साथ की जा रही है।

अनियंत्रित खर्च

नरेशों और सामन्तोंके विरुद्ध दूसरी शिकायत है, उनके अनियंत्रित खर्च। इसमें बहुत-कुछ ऐसा होता है जिसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। आनन्द और विलासपर एक सीमाके अन्दर खर्च करनेका नरेशोंको अधिकार हो सकता है। लेकिन मैं मानता हूँ कि खुद नरेश लोग भी इस मामलेमें अबाध स्वतन्त्रताकी इच्छा नहीं रखते।

राजस्व प्रणाली

रियासतों में राजस्व प्रणाली भी दोष-रहित नहीं है। मुझे पूरा विश्वास है कि देशी रियासतों द्वारा ब्रिटिश राजस्व-प्रणालीकी नकलने वहाँकी प्रजाका भारी अहित किया है। अगर हम यह मान लें कि मुट्ठीभर अंग्रेजोंके लिए हर दशामें हमारे देशपर अपना आधिपत्य बनाये रखना नैतिक दृष्टिसे ठीक है तो ब्रिटिश राजस्व-प्रणालीका थोड़ा-बहुत औचित्य हो सकता है। लेकिन भारतीय नरेशोंके मामलेमें तो ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। उनको अपनी प्रजासे डरने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि उनका अस्तित्व कभी खतरे में नहीं है। उन्हें एक बड़ी सेना रखनेकी जरूरत नहीं है; किसी नरेशके पास है भी नहीं और न अंग्रेज कभी उन्हें ऐसा करने ही देंगे। इसके बावजूद वे इतने भारी कर लगाते हैं, जिसे देना प्रजाकी सामर्थ्य से बाहर है। मुझे यह देखकर दुःख होता है कि हमारी इस प्राचीन परम्पराका कोई आदर नहीं रह गया है, जिसके अनुसार राजस्वका उद्देश्य केवल जन-कल्याण ही था।