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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आबकारी

नरेशोंने राजस्व बढ़ानेके लिए ब्रिटिश आबकारी विभागकी जो नकल की है वह तो विशेषरूपसे क्षोभजनक है। ऐसा कहा जाता है कि आबकारी भारतका एक प्राचीन अभिशाप है। जिस अर्थमें यह बात कही जाती है उस अर्थमें मैं इस कथनपर विश्वास नहीं करता। प्राचीन कालमें राजा लोग शराबके व्यापारसे शायद कुछ राजस्व प्राप्त करते थे, लेकिन उन्होंने लोगोंको आजकी तरह शराबका गुलाम कभी नहीं बनाया। आबकारी अपने वर्तमान रूपमें बहुत पुराने जमानेसे नहीं चली आ रही है, मेरा यह खयाल गलत हो तो भी, मैं इस अन्धविश्वासको नहीं मानता कि कोई चीज प्राचीन कालसे चली आ रही है, इसलिए अच्छी ही है। मैं तो यह भी नहीं मानता कि कोई चीज भारतीय है इसलिए जरूर अच्छी है। बिना कोशिशके भी यह बात देखी जा सकती है कि अफीम और ऐसी ही मादक वस्तुएँ मनुष्यकी आत्माको मूर्च्छित कर देती हैं और उसे पशुओंसे भी नीचे गिरा देती हैं। उनका व्यापार करना स्पष्ट ही पापपूर्ण है। भारतीय रियासतोंको सभी शराबकी दुकानें बन्द करवा देनी चाहिए और इस प्रकार ब्रिटिश प्रशासकोंके सामने अनुकरणके लिए एक अच्छा उदाहरण रखना चाहिए। काठियावाड़की जिन रियासतोंने यह सुधार लागू करने की कोशिश की है, मैं उन्हें बधाई देता हूँ और आशा करता हूँ कि वह दिन दूर नहीं जब हमारे इस प्रायद्वीपमें भी शराब की दुकान नहीं होगी।

कुछ खास मामले

मुझे कुछ रियासतों के विरुद्ध 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' में प्रकाशन और आलोचनाके लिए बराबर शिकायतें मिलती रहती हैं। लेकिन मैं उनकी चर्चा इस समय नहीं करना चाहता और न मैंने उनका जिक्र इन पत्रोंमें ही किया है। जबतक मेरे पास सारे तथ्य न आ जायें और जबतक इस बारेमें सम्बन्धित रियासतोंका कथन मुझे नहीं मालूम हो जाता तबतक मैं चुप ही रहना पसन्द करूँगा। इन चीजोंके बारेमें मुझे कुछ कहना या करना उचित होगा तो मैं अवश्य इस विषय में कदम उठाऊँगा।

खादी और चरखा

दो चीजें हैं जिनमें हम देशी राज्योंसे पूर्ण सहयोगकी अपेक्षा कर सकते हैं। एक जमाने में हमारी अर्थ-व्यवस्था ऐसी थी कि जिस प्रकार हम अपना अन्न खुद पैदा करते और उसका उपभोग करते थे, उसी प्रकार हम अपने यहाँ रुई पैदा करते, अपने घरोंमें उससे सूत कातते थे और अपने ही सूतसे अपने ही बुनकरों द्वारा बुना गया कपड़ा पहनते थे। इसमें से पहली बात तो आज भी होती है, लेकिन दूसरी बात लगभग समाप्त हो गई है। एक आदमी अपने खानेपर जितना खर्च करता है उसका दसवाँ हिस्सा कपड़ेपर करता है; अतः अपनी आयका दसवाँ हिस्सा अपने ही बीच बाँटनेके बजाय अब हम उसे इंग्लैंड भेज देते हैं या अपनी ही मिलोंको। इसका मतलब यह हुआ कि हम इतना ही श्रम खो देते हैं और बदले में हम कपड़ेपर पैसा खर्च करते हैं और परिणामतः दोहरा नुकसान उठाते हैं। इसका नतीजा यह