पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/६२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५९३
अध्यक्षीय भाषण: काठियावाड़ राजनीतिक परिषद्

व्रतसे उन्होंने दिखा दिया कि एक राज-गृहस्थ भी पूर्ण आत्म-संयमका जीवन बिता सकता है। अपने लोकप्रिय शासनसे उन्होंने अपने सिंहासनकी शोभा बढ़ाई और सिद्ध कर दिया कि राम-राज्य स्वराज्यका चरमोत्कर्ष है। रामको जनमतका निश्चय करनेके लिए मत-गणना-जैसे निहायत अपूर्ण आधुनिक साधनकी कोई आवश्यकता नहीं थी। उन्होंने जनता के हृदयको वशमें कर लिया था। उन्हें जनताकी रायका जैसे सहज ही ज्ञान हो जाता था। रामकी प्रजा अत्यन्त सुखी थी।

ऐसा राम-राज्य आज भी सम्भव है। रामका वंश अभी समाप्त नहीं हुआ है। आधुनिक युगमें कहा जा सकता है कि आरम्भिक खलीफाओंने राम-राज्यकी स्थापना की थी। अबूबकर और हजरत उमर करोड़ों रुपयेका राजस्व उगाहते थे, लेकिन व्यक्तिगत तौरपर वे फकीरोंसे बेहतर नहीं थे। वे राजकोषसे एक पाई भी नहीं लेते थे। वे हमेशा सतर्क रहते थे कि जनताको न्याय प्राप्त हो। उनका सिद्धान्त था कि शत्रुके साथ भी कोई धोखेबाजी नहीं की जा सकती और उसके साथ भी न्यायपूर्ण बरताव होना चाहिए।

जनता से

मेरी नम्र रायमें नरेशोंके प्रति कुछ शब्द कहकर मैंने उनके प्रति अपना कर्त्तव्य निबाहा है। अब कुछ शब्द जनतासे कहूँगा। लोकोक्ति है,"यथा राजा तथा प्रजा" यह उक्ति आधी ही सच है। कहनेका मतलब कि जितनी यह उक्ति सही है कि "यथा प्रजा तथा राजा" उतनी ही सही पहली उक्ति है, उससे अधिक नहीं। जहाँ प्रजा सदा सावधान और सजग है वहाँ राजा अपनी गद्दीके लिए हमेशा उसके ऊपर निर्भर रहता है। जहाँकी प्रजा तन्द्रामें पड़कर उदासीन हो जाती है, वहाँ इस बातकी बहुत सम्भावना रहती है कि राजा रक्षककी जगह भक्षक बन जायेगा। जो प्रजा सदैव जागरूक नहीं रहती, उसे अपने राजापर दोष धरनेका कोई अधिकार नहीं है। राजा प्रजा दोनों ही ज्यादातर परिस्थितियोंके दास होते हैं। उद्यमशील राजा और प्रजा परिस्थितियोंको अपने अनुकूल मोड़ लेते हैं। परिस्थितियोंको अपना दास बना लेनेमें ही मर्दानगी है। जो अपनी मदद खुद नहीं करते वे नष्ट हो जायेंगे। इस सिद्धान्तको समझने का मतलब है कि मनुष्य अधीर न हो, भाग्यको न कोसे और दूसरोंको दोष न दे। जो मनुष्य आत्म-सहायता के सिद्धान्तको समझता है वह अपनी असफलता के लिए स्वयं अपनेको दोष देता है। यही वह सिद्धान्त है जिसके आधारपर मैं हिंसाका विरोध करता हूँ। जहाँ हमें स्वयं अपनेको दोष देना चाहिए, वहाँ यदि हम दूसरोंको दोष दें और उनके नाशकी इच्छा करें या उनका नाश कर दें तो रोगका मूल कारण खतम नहीं हो जाता, उलटे रोगका ज्ञान न होनेके कारण उसकी जड़ और भी गहरी पैठ जाती है।

सत्याग्रह

तो हम देखते हैं कि जिन दोषोंका मैंने उल्लेख किया उनके लिए जनता उतनी ही जिम्मेदार है जितने कि राजा लोग, बल्कि उनसे ज्यादा जिम्मेदार है। यदि जनमत

२५-३८