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१६. पत्र: घनश्यामदास बिड़लाको

श्रावण कृष्ण ७ [ बृहस्पतिवार, २१ अगस्त, १९२४ ]

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भाई श्रीयुत घनश्यामदास,

ईश्वरने मुझको नीति रक्षक दीये हैं। उन्हींमें से मैं आपको समझता हूँ। मेरे कई बालक भी ऐसे हैं कई बहिन भी है और आप, जमनालालजी जैसे प्रौढ़ भी हैं जो मुझको सम्पूर्ण पुरुष बनाना चाहते हैं। ऐसा समझते हुए आपके पत्रसे मुझे दुःख कैसे हो सकता है। मैं चाहता हुं कि हर वखत आप ऐसे ही मुझे सावधान बनाते रहें।

आपकी तीन फरीयाद हैं। एक मेरा स्वराज दलको रिश्वतके आरोपसे मुक्त रखना। दूसरा सोहरावर्धीको प्रमाणपत्र देना और तीसरा सरोजिनी देवीको सभापतित्व दिलानेकी कोशिश करना।

प्रथम बात तो यह है कि मनुष्यका धर्म है कि साधनाके पश्चात जो अपनेको सत्य लगे उसी चीझको कहना भले जगत्को वह भूलसा प्रतीत हो---इसके सिवा मनुष्य निर्भय नहिं बन सकता है। अपना मोक्षके सिवा और किसी चीझका मैं पक्षपाती नहिं बन सकता है। परन्तु यदि मोक्ष भी सत्य और अंहिसाका प्रतीकुल हो तो मुझे मोक्ष भी त्याज्य है। उक्त तीनों बातोंमें मैंने सत्यका हि सेवन किया है। आपने जो कुछ मुझे जुहुमें कहा था मुझे स्मरणमें रखते हुए जो कुछ भी कहा है वह कहा। जब मेरे नजदीक कुछ भी प्रमाण न हो तो मेरा धर्म है कि मैं स्वराज दलको आरोपसे मुक्त समजुं। यदि आप मुझको प्रमाण दे देंगे तो मैं अवश्य निरीक्षण करूंगा। और आप उसका उपयोग करने देंगे तो मैं जाहेरमें भी कह दुंगा। वरना मेरे दिलमें समझकर मैं खामोश रहुंगा।

सोहरावर्धीको मैंने प्रमाणपत्र उनकी हुशियारीका दीया है। मैं अब भी उनकी हुशियारीका अनुभव कर रहा हूँ।

सरोजिनी देवीके लिये आप खामखा घभराते हैं। मेरा दृढ विश्वास है कि उन्होंने भारतवर्षकी अच्छी सेवा की है और कर रही है। उनके सभापतित्वके लीये मैंने कुछ प्रयत्न इस समय नहिं कीया है परन्तु मेरा विश्वास है कि वह उस पदके लीये योग्य है यदि दूसरे जो आजतक हो गये वे योग्य थे तो उसके उत्साहपर सब कोई मुग्ध हैं। उसकी वीरताका मैं साक्षी हैं। मैंने उनका चरित्र दोष नहिं देखा है।

  1. १. वर्ष, प्रेषीकी पुस्तक इन द शैडो ऑफ द महात्मामें दी गई तिथिके अनुसार।