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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मंत्रमुग्ध हूँ। यह तो मेरे लिए पारसमणिके समान है। मैं जानता हूँ कि हमारी जो खराबियाँ हैं उनका एकमात्र इलाज अहिंसा है। मेरी दृष्टिमें अहिंसाका रास्ता भीरु या नामर्द लोगोंका रास्ता नहीं है। अहिंसा क्षात्र धर्मका चरमोत्कर्ष है, क्योंकि यह निर्भयताकी पराकाष्ठाका प्रतीक है। इसमें पीठ दिखाकर भागने या पराजयकी कोई गुंजाइश नहीं है। अहिंसा आत्माका गुण है, अतः इसकी सिद्धि कठिन नहीं है। अपने अन्तर आत्माका अस्तित्व अनुभव करनेवालेको यह गुण सरलतासे सिद्ध हो जाता है। मेरा विश्वास है कि भारतको अहिंसाके सिवा कोई दूसरा रास्ता अनुकूल नहीं पड़ेगा। भारतके लिए अहिंसा धर्मका प्रतीक चरखा है, क्योंकि चरखा ही दुःखीजनोंका साथी और गरीबोंको समृद्धि प्रदान करनेवाला है। प्रेमका कानून दिशा और कालके बन्धनसे मुक्त है। इसीलिए मेरे स्वराज्यमें भंगियों, ढेढ़ों और दुबलों[१] और दीनसे-दीन व्यक्तिका भी महत्त्व माना गया है और चरखेके सिवा मैं दूसरी किसी चीजको नहीं जानता जो इन सबको अपना मित्र बनाती हो।

मैंने आपकी स्थानीय समस्याओंकी चर्चा नहीं की है, क्योंकि उनका मुझे समुचित ज्ञान नहीं है। देशी रियासतोंके लिए आदर्श संविधानके बारेमें मैंने कुछ नहीं कहा है, क्योंकि उसकी रचना केवल आप ही कर सकते हैं। मेरा कर्त्तव्य तो उन साधनों की खोज करना और उनका उपयोग करना है जिनके जरिये हमारा देश अपनी इच्छाको कार्यान्वित करनेकी शक्ति प्राप्त कर सके। एक बार देशको अपनी शक्तिका ज्ञान हो जाये, फिर तो वह अपना रास्ता स्वयं पा लेगा और रास्ता नहीं होगा तो बना लेगा। मुझे तो वही राजा स्वीकार्य है जो अपनी प्रजाके सेवकोंमें सबसे श्रेष्ठ हो। प्रजा ही वास्तविक स्वामी है। लेकिन यह स्वामी ही सो जाये तो सेवक क्या कर सकता है? इसलिए सच्ची राष्ट्रीय जागृतिमें सभी चीजें शामिल हैं।

मेरा आदर्श यह है और इसीलिए मेरी कल्पनाके स्वराज्यमें भारतीय रियासतोंके लिए स्थान है और उसमें प्रजाको उसके अधिकारोंकी पूरी गारंटी होगी। अधिकारका सच्चा स्रोत कर्त्तव्य है। इसीलिए मैंने केवल राजाओं और प्रजाके कर्त्तव्योंकी ही चर्चा की है। हम सब यदि अपने कर्त्तव्योंको पूरा करें तो अधिकारोंको ढूंढ़ने दूर नहीं जाना होगा। यदि हम अपने कर्त्तव्योंको अधूरा छोड़कर अधिकारोंके पीछे दौड़ेंगे तो वे मृग मरीचिकाकी तरह हमारे हाथसे निकल जायेंगे। हम जितना ही उनके पीछे दौड़ेंगे वे हमसे उतने ही दूर भागते जायेंगे। यही शिक्षा कृष्णके इन अमर शब्दोंमें निहित है: "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।[२]” अर्थात् कर्म करना ही तेरा धर्म है, अतः फलकी आकांक्षा मत कर। कर्म कर्त्तव्य है; अधिकार फल है।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, ८-१-१९२५
  1. गुजरातकी एक पिछड़ी हुई आदिवासी जाति।
  2. भगवद्गीता अध्याय २, श्लोक ४७।