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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करना आता है लेकिन मेरी राजनीति दूसरी तरहकी है, उसमें विवेक और प्रेम निहित है। उसमें कूटनीतिको स्थान नहीं है। सच तो यह है कि कूटनीतिसे जितना काम होता है, विवेक और प्रेमसे उससे हजार गुना ज्यादा होता है और इसमें किसानका, भंगीका, ढेढ़का सबके हितका विचार आ जाता है। आप जानते हैं कि कांग्रेसमें भी मैंने 'राजनीति' की यही व्याख्या की थी और ऐसा करते हुए मैंने लज्जाका अनुभव नहीं किया था। इसी बातको ध्यान में रखकर मैंने खादीको राजनीतिक कार्य-क्रममें स्थान दिया है। मेरा दावा है कि मेरी बात समझदारीकी और ज्ञानकी है तथा मुझे लगता है कि एक समय ऐसा आयेगा जब आप कहेंगे, गांधीने चरखेकी जो बात की थी उसमें अत्यन्त चतुराई, ज्ञान और समझदारी भरी हुई थी। आज जब लोग मुझपर हँसते हैं और कहते हैं कि चरखा गांधीके मनोरंजनकी वस्तु है तब मुझे उनपर दया आती है और वे अपने मनमें जितना चाहें उतना हँसें लेकिन मैं खादीकी बात छोड़नेवाला नहीं हूँ।

अब दूसरी बातपर आता हूँ। जबसे मेरे यहाँ आनेकी बात हुई है और जबसे मैंने 'नवजीवन' में लिखा है कि यदि सभामें ढेढ़ोंको अलग स्थान दिया जायेगा तो मेरे लिए भी उनके बीच बैठनेकी व्यवस्था करनी होगी[१], तबसे भावनगर में खलबली मच रही है। काठियावाड़ में अस्पृश्यताका रूप क्या है, उसे मैंने अपनी आँखोंसे देखा है। मेरी पूजनीय माता भंगीको छूनेमें पाप मानती थीं, लेकिन इसके लिए मेरे मनमें अपनी माँके प्रति घृणाका भाव नहीं है। लेकिन मुझे अपने माँ-बापके कुँएमें डूबकर तो नहीं मरना है। मेरे माँ-बापते तो मुझे स्वतन्त्रताकी विरासत दी है और यद्यपि आज मैं उनके विचारोंसे विपरीत विचार रखता हूँ तथापि मुझे विश्वास है कि मेरी माताकी आत्मा कहेगी, "बेटा, तू धन्य है।" क्योंकि मैंने उससे जो प्रतिज्ञाएँ की थीं, उनमें ऐसी कोई बात नहीं थी कि किसीसे छू जानेमें पाप है। मुझे विलायत भेजते समय उसने मुझसे तीन प्रतिज्ञाएँ कराई थीं, लेकिन उसने मुझसे ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं कराई थी कि विलायत में जाकर अस्पृश्यताको धर्म समझना। मैं देखता हूँ कि इस बातको लेकर आज भावनगर में थोड़ी (या ज्यादा―मैं ठीक नहीं जानता ) खलबली मची हुई है तथा नागर, बनिये और अन्य लोग व्याकुल हो रहे हैं। उनमें से जो लोग उपस्थित हैं जो ऐसा मानते हैं कि गांधी भ्रष्ट हो गया है और सनातन धर्मकी जड़ काट रहा है उनसे मैं विनयपूर्वक, पर दृढ़तापूर्वक कहना चाहता हूँ कि गांधी सनातन धर्मकी जड़ नहीं काट रहा है, अपितु गांधी जो कहता है उसीमें सनातन धर्मकी जड़ निहित है। आपमें भले ही कोई पण्डित हो, भले ही उन्होंने 'वेद' का हर शब्द-शब्द रटा हो तथापि मैं उनसे कहूँगा कि आपसे भारी भूल हो रही है, सनातन धर्मकी जड़ वे ही उखाड़ रहे है जो अस्पृश्यताको हिन्दू धर्मका मूल मानते हैं। उनसे मैं आदरपूर्वक कहना चाहता हूँ कि इसमें विचार नहीं, विवेक नहीं, विनय नहीं और दया नहीं है। अपने विचारमें यदि मैं अकेला भी रह जाऊँ तो भी अन्ततक मैं यही कहूँगा कि अस्पृश्यताका हम आज जो अर्थ करते हैं उसे यदि हम हिन्दू-धर्ममें

  1. देखिए शीर्षक “किस आशासे?”, ७-१२-१९२४।