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भाषण : काठियावाड़ राजनीतिक परिषद्, भावनगरमें

स्थान दें तो हिन्दू-धर्मको क्षय रोग हो जायेगा और इसके परिणामस्वरूप यह नष्ट हो जायेगा। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—सबसे मैं कहता हूँ कि हिन्दुस्तानका उद्धार न तो मुसलमानोंपर और न ईसाइयोंपर उतना निर्भर करता है जितना कि इस बातपर कि हिन्दू अपने धर्मका किस तरह पालन करते हैं। क्योंकि मुसलमानोंका काशी विश्वनाथ यहाँ नहीं बल्कि मक्केमें है और ईसाइयोंका जेरूसलम में है। लेकिन आप तो हिन्दुस्तान में रहकर ही मोक्ष प्राप्त कर सकेंगे। यह युधिष्ठिरकी भूमि है, रामचन्द्रकी भूमि है, ऋषि-मुनियोंने इस भूमिपर तपश्चर्या की और उन्होंने ही यह सन्देश सुनाया कि यह कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं। इस भूमिके वासियोंसे मैं कहता हूँ कि आज हिन्दू-धर्मकी परीक्षा है और जगतके सब धर्मोंके साथ आज उसकी तुलना हो रही है। तथा जो वस्तु समझके बाहर होगी, दयाधर्मके बाहर होगी उस वस्तुका [यदि] हिन्दू-धर्ममें समावेश होगा तो उसका अवश्य नाश हो जायेगा। दया-धर्मका मुझे भान है और इसीके कारण मैं देख रहा हूँ कि हिन्दू-धर्ममें कितना पाखण्ड, कितना अज्ञान चल रहा है। इस पाखण्ड और अज्ञानके विरुद्ध जरूरत पड़नेपर मैं अकेले ही जूझूँगा, अकेला रहकर तपश्चर्या करूँगा और इसका नाम रटते हुए मरूँगा। हाँ, ऐसा भी हो सकता है कि मैं पागल हो जाऊँ और अपने पागलपनमें मैं कहने लगूँ कि अस्पृश्यता सम्बन्धी अपने विचारोंके सम्बन्धमें मैंने भूल की थी, अस्पृश्यताको हिन्दू धर्मका पाप बतानेमें मैंने पाप किया था। जिस दिन ऐसा हो उस दिन आप समझ लेना कि मैं डर गया हूँ, परिणामोंका सामना नहीं कर सका हूँ और घबरा कर खुद ही अपने विचारोंसे पीछे हट रहा हूँ। उस समय आप यही समझना कि मूर्च्छावस्थामें ऐसी बात कर रहा हूँ।

मैं आज जो बात कह रहा हूँ उसमें मेरा स्वार्थ नहीं है। उससे मुझे कोई पदवी प्राप्त नहीं करनी है, पदवी तो मुझे भंगीकी चाहिए। सफाई करनेका काम कितने पुण्यका काम है। यह काम या तो ब्राह्मण कर सकता है या भंगी ही। ब्राह्मण ज्ञानपूर्वक करता है और भंगी अज्ञानपूर्वक। मुझे दोनों पूज्य हैं, आदरणीय हैं। दोनोंमें से यदि एकका भी लोप हो जाये तो हिन्दूधर्म लुप्त हो जायेगा।

और सेवाधर्म मुझे प्रिय है इसीसे भंगी मुझे प्रिय हैं। मैं तो भंगीके साथ खाता भी हूँ लेकिन आप लोगोंसे नहीं कहता कि आप भी उनके साथ खायें और रोटी-बेटीका व्यवहार करें। आपको कैसे कह सकता हूँ? मैं तो फकीरके समान हूँ—सच्चा फकीर हूँ या नहीं, इसकी मुझे खबर नहीं। सच्चा संन्यासी हूँ या नहीं, इसकी भी मुझे खबर नहीं है। लेकिन संन्यास मुझे अच्छा लगता है। मुझे ब्रह्मचर्य प्रिय है लेकिन मैं सच्चा ब्रह्मचारी हूँ अथवा नहीं सो मुझे नहीं मालूम। क्योंकि यदि ब्रह्मचारीके मनमें दूषित विचार आते हों, यदि वह स्वप्नमें भी व्यभिचारका विचार करता है तो मैं मानूँगा कि वह ब्रह्मचारी नहीं है। मैं क्रोधमें एक भी वचन बोलूँ, द्वेषमें कोई भी कार्य करूँ, अपने कट्टरसे-कट्टर दुश्मनके विरुद्ध भी यदि मैं क्रोधमें कुछ कहूँ तो मैं अपने आपको सच्चा ब्रह्मचारी नहीं कह सकता। अतएव मैं सम्पूर्ण ब्रह्मचारी अथवा संन्यासी हूँ अथवा नहीं सो मैं नहीं जानता, तथापि मैं इतना अवश्य कहूँगा कि मेरा जीवन उस दिशाकी ओर बह रहा है और चूंकि मेरी दशा ऐसी है