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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


अतः कोई भंगीकी लड़की अथवा कोई कोढ़ी यदि मेरी सेवा चाहते हों तो मैं उनसे यह नहीं कह सकता कि मैं नहीं कर सकता। यदि वे मुझे अपने हाथोंसे खिलाना चाहते हों तो मैं खानेसे इन्कार नहीं कर सकता। फिर भले ईश्वरकी इच्छा हो तो मुझे बचाये अथवा मुझे मारे, लेकिन मुझे तो कोढ़ीकी सेवा करनी ही है। हाँ, ऐसा करते हुए मैं यह दावा भी करूँगा कि ईश्वरको गरज होगी तो वह मुझे बचायेगा, क्योंकि भंगी, कोढ़ी और ढेढ़को खिलाकर खाना ही मैं अपना धर्म समझता हूँ । लेकिन, समाजने खाने-पीने के सम्बन्धमें जो मर्यादा निश्चित की है, आप उसका उल्लंघन करें सो मैं नहीं कहता । आपसे तो मैं इतना ही चाहता हूँ कि आप पाँचवाँ वर्ण न बनायें । ईश्वरने चार वर्ण बनायें हैं और उसका अर्थ मैं समझ सकता हूँ । पर आप अस्पृश्यताका यह पाँचवाँ वर्ण न बनायें । अस्पृश्यता मुझसे सहन ही नहीं होती । यह शब्द सुनकर मुझे आघात पहुँचता है। जो लोग मेरा विरोध करते हैं, उनसे मैं कहता हूँ कि आप विचार करें, मेरे पास आकर उसकी चर्चा करें तो आप समझ जायेंगे कि मैं क्या कह रहा हूँ । आप विवेक और विचार छोड़कर बात कर रहे हैं; उसका असर नहीं होगा। आज मेरे पास एक तार आया है जिसपर दो पण्डितोंके हस्ताक्षर हैं। इन पण्डितोंको मैं नहीं जानता लेकिन उसमें उन्होंने लिखा है कि हिन्दूधर्मका सहारा लेकर और पण्डितोंके नामपर आपपर जो आक्षेप किये जा रहे हैं, वे झूठे हैं तथा हम आपको अपने वर्गके लोगोंके हस्ताक्षरसे युक्त पत्र भेजेंगे, जिससे आपको विदित होगा कि अनेक शास्त्री आपके साथ हैं। हालांकि आप जितने जोर-शोर से काम कर रहे हैं, उतने जोर-शोरसे हम नहीं कर सकते; क्योंकि आप निडर हैं और हमें बहुत-सी बातोंका विचार करना पड़ता है । द्रोणाचार्य और भीष्म के पास आकर श्रीकृष्णने पूछा कि क्या आप पाण्डवोंके विरुद्ध लड़ेंगे, तो उन्होंने उत्तर दिया, भाई हमें तो अपनी आजीविकाकी पड़ी है, इसलिए हम क्या करें ? हमारे बीच भी अनेक द्रोणाचार्य और भीष्म पड़े हैं, जबतक उन्हें अपने पेटकी पड़ी है तबतक वे बेचारे क्या कर सकते हैं ? इनसे कुछ नहीं हो सकता, इसमें उनका दोष नहीं है अपितु विधिका दोष है, परिस्थितियोंका दोष है। लेकिन वे मनमें तो मानते हैं कि गांधी अच्छा काम कर रहा है और उनका हृदय मुझे दुआ दे रहा है । लेकिन इसके साथ ही मैं एक दूसरी बात भी कहता हूँ । मैं तो सत्याग्रही हूँ, मारना नहीं बल्कि मरना मेरा धर्म है, इसलिए मुझे तो अपने तरीकेसे ही काम लेना है । अतएव आपसे एक विनती करता हूँ । यदि आपको ऐसा लगे कि अस्पृश्यता हिन्दू-धर्मकी जड़ है तो आप भले ही वैसा मानें, लेकिन मुझे भी अस्पृश्यताको हिन्दूधर्मका पाप माननेका अधिकार प्रदान करें । आपसे बन सके तो आप हिन्दू समाजके हृदयको जागृत करना और मुझे भी वैसा करनेका अवकाश देना । सत्याग्रही तो एक मार्गी है, उसे दूसरोंके साथ गुप्त मन्त्रणा नहीं करनी है, [ सिद्धान्तहीन ] समझौते नहीं करते हैं। इसलिए आपके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करनेका मैं वचन दूंगा । यदि मैं अकेला रह जाऊँगा तो दूर रहकर " मुझसे दूर रहो, दूर रहो" की पुकार करूँगा ।

अस्पृश्यता के कार्य में आज- जो लोग मेरी मदद कर रहे हैं उनसे मैं कहता हूँ कि ―डेढ़ भंगी को भी कहता हूँ― आपको जो गाली दे उसे सहन करना| तुलसी―