पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/६४०

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६०४ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय अपने लिए दयाकी भीख नहीं माँगता, दयाकी भीख तो मैं ईश्वरसे ही माँगता हूँ लेकिन आपसे मैं सच्चे सैनिककी प्रतिज्ञा माँगता हूँ और कहता हूँ कि यदि आप प्रतिज्ञा करेंगे तो आपको उसका पालन करना ही पड़ेगा। बिना विचारे प्रतिज्ञा करेंगे तो मैं आपको बहुत भारी पड़ेंगा, क्योंकि मैं आपसे प्रतिज्ञाका पालन करवा कर रहूँगा। इसलिए कल यहाँ आप बहुत सोच-विचारकर और सावधान होकर आना । मुझे तीस मिनट लेने थे, लेकिन मैंने ३५ मिनट ले लिये हैं । ये पाँच मिनट लेनेका मुझे अधिकार नहीं था लेकिन भंगीके हितार्थ आपने मुझे यह छूट दी है और मैंने आपसे ली है । [ गुजरातीसे ] नवजीवन, परिशिष्ट, १८-१-१९२५ ४२५. समापन भाषण : काठियावाड़ राजनीतिक परिषद् में 11 [९ जनवरी, १९२५] मैं जब-जब काठियावाड़ आया हूँ तब-तब मैंने अपने प्रति काठियावाड़के अपूर्व प्रेमका अनुभव किया है। इसी प्रेमका अनुभव मैंने इस बार भी किया है और इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं । हिन्दुस्तान में मैं जहाँ-जहाँ जाता हूँ वहाँ-वहाँ मुझे काठि- यावाड़ ही दिखाई देता है - मुझपर प्रेमकी ऐसी ही वर्षा की जाती है। लेकिन मैं तो आपसे [ इस प्रेमसे बड़ी ] एक दिव्य वस्तु माँगता हूँ । आपके प्रेमसे मैं घबरा जाता हूँ, कारण आप जिस बातको स्वीकार करें उसपर यदि अमल न करें तो मेरे लिए आपका प्रेम पोषक नहीं, वरन् घातक होगा। इस प्रेम से मेरी उन्नति नहीं हो सकती बल्कि मुझे आलस्य घेरेगा । और यदि मैं जागृत न रहूँ तो मेरी अधोगति हो सकती है। प्रेमसे मैं फूल उठूं ऐसा मेरा स्वभाव नहीं है, लेकिन यदि वह प्रेम कार्यरूपमें परिणत न हो तो आपके और मेरे बीचके सम्बन्धका क्या होगा ? यह सम्बन्ध सार्वजनिक है, व्यक्तिगत नहीं । आपकी सेवा के लिए आपसे मेरा सम्बन्ध है, आप मुझे निजी रूपसे निमन्त्रण दें तो कदाचित् मैं उसे स्वीकार न कर सकूँ, लेकिन आप मुझे सार्वजनिक सेवाके लिए जब चाहें तब बुला सकते हैं। इसलिए जबतक आपका प्रेम सार्वजनिक कार्य में परिवर्तित नहीं होता, तबतक इस प्रेमकी कोई कीमत नहीं। इस प्रेमकी ईश्वरके दरबारमें भले ही कीमत हो लेकिन मैं तो कुछ करना चाहता हूँ और हमारी यह मित्रता उसी कार्यके लिए है । अतः मैं आपसे ऐसे प्रेमकी अपेक्षा करता हूँ जो उस कार्य में सहायक हो। मैं तो प्राकृत मनुष्य ठहरा, मुझमें राग-द्वेष है; भावनाओंको दबाना मेरा धर्म है। हमेशा चित्तवृत्तिके निरोधका प्रयत्न करता रहता हूँ, इसलिए प्रेम भी ऐसा चाहता हूँ, उसे ऐसा रूप देनेका प्रयत्न करता हूँ, जिससे चित्तवृत्ति शान्त हो, जिससे कि मैं जलूँ नहीं । प्रेम अग्निके समान १. साधन - सूत्रसे । Gandhi Heritage Portal