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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

संन्यासी है। आज तो विद्यार्थियों के मन भी खराब हो गये हैं। मेरी मति १२ साल की उम्र में ही भ्रष्ट हो गयी थी। मुझे विकारों का ज्ञान उस छोटी उम्र में हो गया था । विद्यार्थी का जीवन स्वभावतः निर्विकार होना चाहिए। इतनी कच्ची उम्र में विकारों का ज्ञान हो जाये, ऐसे पतनके हजारों उदाहरण मिलते हैं, लेकिन सत्यका दर्शन कराने के लिए मैं अपना ही उदाहरण दे रहा हूँ। विद्यार्थी-जीवन स्वभावतः ही संन्यासी-जीवन है। पर संन्यासी उस दशा को अपनी इच्छा करके प्राप्त करता है। आज तो तमाम आश्रम छिन्न-भिन्न हो गये हैं, सिर्फ नाम ही बाकी रह गये हैं। आश्रमों के लिए मेरे मन में इतना ऊँचा स्थान है कि उसका वर्णन नहीं हो सकता। जो हो, उनका आन्तरिक सत्य तो यही है और उसमें हमें विद्यार्थी-धर्म का दर्शन हो जाता है।

विद्यार्थी धर्मका ज्ञान आज कैसे हो सकता है? आज तो माता-पिता भी उलटा पाठ पढ़ाते हैं। विद्या की प्राप्ति के लिए नहीं, बल्कि इस गरज से कि लड़का पढ़-लिखकर धन कमाये, पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करे, इसलिए वे उसे विद्या पढ़ाते हैं । इस तरह हमारी स्थिति जैसी होनी चाहिए उससे उलटी बना दी गई है। जो हमारा धर्म होना चाहिए, उसे छोड़कर हम विद्या का दुरुपयोग कर रहे हैं। फलतः विद्यार्थी जीवन में जो परम शान्ति, जो सुख, जो शुद्धता होनी चाहिए वह हमें दिखाई नहीं देती। हमारे विद्यार्थी विद्यार्थी- अवस्था में ही चिन्ताओं के बोझ से दबे नजर आते हैं। लेकिन इस अवस्था में देने की तो बात ही नहीं है; केवल ग्रहण करना, लेते रहना और लेने में विवेक-बुद्धि से काम लेना इतना ही काम विद्यार्थी का है। अनेक प्रयोगों के द्वारा शिक्षक हमें इसी विवेक- बुद्धि की शिक्षा देता है। वह बताता है कि कौन चीज ग्राह्य है, कौन त्याज्य है। यदि हमें यह विद्या ज्ञात न हो तो हम एक यन्त्र वन जाते हैं। लेकिन हम तो सजीव हैं, चेतन हैं और चेतन का स्वभाव है यह समझ लेना कि कौन वस्तु ग्राह्य है और कौन त्याज्य। इस कारण इस अवस्था में हम सत्य का ग्रहण, असत्य का त्याग, मधुर- वाणी का ग्रहण, कठोर और दुःख कर वाणी का त्याग, आदि बातें सीखते हैं और उसके सीखने से जीवन सरल हो जाता है।

तुम्हें लगेगा कि यह तो हिन्दू धर्म पर व्याख्यान सुनाने आया है। लेकिन मैं तो तुम्हारे सामने अपनी बात रखने आया हूँ -- और मेरी बात इसके सिवा क्या हो सकती है? उसी को स्पष्ट करने के लिए मैंने यह सारा विश्लेषण किया है। मैं कह चुका हूँ कि ब्रह्मचारी को ग्राह्य और त्याज्य का भेद करना सीखना चाहिए। पर आज तो हमने धर्म को संकर कर डाला है और हमें इस संकर के खिलाफ लड़ना है। यदि माता-पिता ने दूसरे प्रकार की शिक्षा दी होती और वायुमण्डल बिगाड़ा न होता तो विद्यार्थियों को इस वायुमण्डल का मुकाबला करने की जरूरत न रहती। प्राचीन काल में विद्यार्थी जीवन ऋषियों के आश्रमों में व्यतीत होता था। पर आज हालत उलटी है। जहाँ समुद्र की स्वच्छ हवा आती हो, वहाँ खूब खुलकर हवा खानी चाहिए। पर जहाँ बदबू आती हो वहाँ मुँह बन्द कर लेना चाहिए। यहाँ का वायुमण्डल बदबू से भरा हुआ है। इसीलिए उसके खिलाफ आवाज उठाये बिना मेरे लिए कोई चारा नहीं। इस कसौटी के अनुसार तुम देखोगे कि आज तुमको बहुतेरी चीजें त्याग देनी पड़ेगी। बहुत-सी बातें ऐसी होंगी जो महज नुकसानदेह हैं। प्राचीनकाल में मौखिक शिक्षा दी जाती थी। मंत्र