पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/६५३

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दीक्षान्त भाषण : गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबादमें ६१७ प्रगति कहती है, कोई वैसी बात बता सकते तो मुझे खुशी होती । आजकी स्थिति में मुझे प्रसन्नता होती है, ऐसा नहीं कह सकता; परन्तु मैं निराश भी नहीं हुआ हूँ । बहुत-से दूसरे लोग और मैं ऐसी उम्मीद रखते ही थे कि यह कार्य हमें एक ही वर्ष चलाना होगा और एक वर्ष (अर्थात् स्वराज्य-प्राप्ति) के बाद तो जिन संस्थाओं में से आप निकले हैं, उन्हीं संस्थाओंमें आप फिरसे शिक्षा लेने लगेंगे । एकके बदले तो चार वर्ष हो गये, और आगे कितने वर्ष यह देश निकाला भोगना पड़ेगा, सो नहीं कहा जा सकता। मैं तो अब ऐसा मानने लगा हूँ कि यह देश निकाला है ही नहीं । कदाचित् स्वराज्य मिलनेपर भी ऐसी कितनी ही संस्थाएँ सरकारसे स्वतन्त्र रहकर चलती रहेंगी। उस समय सिर्फ इतना होगा कि इन संस्थाओंको सरकारी संस्थाओंसे प्रतिस्पर्धा नहीं करनी पड़ेगी, सरकारी संस्थाएँ विरोधी नहीं मानी जायेंगी, त्याज्य नहीं मानी जायेंगी । तथापि उस समय भी अनेक प्रयोग तो होते ही रहेंगे और उनमें हमारी जैसी संस्थाओंके लिए स्थान रहेगा । इसलिए जो विद्यार्थी विद्यापीठके आश्रय में पढ़ते हैं वे किसी तरह निराश न हों और ऐसा न मानें कि हम जितने वर्ष यहाँ पढ़े हैं, वे सब निष्फल गये । आज सवेरे मैं जब आश्रम पहुँचा तो एक पोस्टकार्ड आया हुआ था। इसमें महाविद्यालयपर आक्षेप किया गया था । पोस्टकार्डपर लिखनेवालेका नाम-पता कुछ नहीं था । मैं 'नवजीवन' में अनेक बार कह चुका हूँ कि कोई भी व्यक्ति अपना नाम- पता दिये बिना पत्र न लिखे। यह नामूसीकी बात है, इसमें एक प्रकारकी भीरुता है और हमें इसे छोड़ देना चाहिए। जिन विचारोंको दुनिया के सामने रखने की हमारी हिम्मत न हो, उन्हें भूल जाना, दफना देना ही अच्छा है । तथापि यह प्रथा इस देश में कितने ही बरसोंसे चलती आ रही है और कदाचित् आगे भी चलती रहेगी । इसलिए पत्रको मैं पढ़ गया। इसमें लिखा है : आप महाविद्यालयको बन्द क्यों नहीं करते ? आपकी आँखें क्यों नहीं खुलतीं ? विद्यार्थी आपको भुलावेमें डालते हैं; यहाँसे निकलने के बाद बहुत-से विद्यार्थी सरकारी संस्थाओंमें चले जाते हैं । आप चाहे जो मानें, लेकिन छात्रों और छात्राओंको चरखेपर तनिक भी श्रद्धा नहीं है । इसलिए आप विद्यापीठ और उसकी सब संस्थाओंको बन्द कर दीजिए।" मुझे यह सलाह मान्य नहीं है, और मैं चाहता हूँ, आपको भी मान्य न हो । दुनिया में किसी भी कामका महत्त्व इस बातसे नहीं आँका जा सकता कि उसमें कितने लोग लगे हुए हैं और उसपर कितना पैसा खर्च किया जा रहा है। इस तरह हिसाब करने बैठें तो भ्रम में पड़नेका भय रहता है । इस देश में आत्म-शुद्धिकी प्रवृत्ति चल रही है. • हमने असहयोगको दुनिया के सामने आत्म-शुद्धिके प्रयत्नके रूपमें ही पेश किया है। तो ऐसे समय हमारी संस्थाओं में विद्यार्थियोंकी संख्या बढ़ेगी, यह सोचना ही भूल है । संख्या बढ़े तो अच्छा है, न बढ़े तो भी हमें श्रद्धा रखनी चाहिए और जबतक हममें विश्वास है तबतक हमें इस प्रवृत्तिमें लगे रहना चाहिए । 40 १. गांधीजी उसी दिन सुबह भावनगर से साबरमती लौटे थे । પો આ स्मारक Gandhi डा नाह- १३० Portal