पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/६५४

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६१८ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय अगर यह सच हो कि विद्यार्थियों को चरखेपर श्रद्धा नहीं है तो दुःखकी बात है । जिसे चरखेपर श्रद्धा न हो, उसे विद्यापीठका त्याग ही कर देना चाहिए । राष्ट्रीय स्कूलोंके सम्बन्ध में कांग्रेसका प्रस्ताव तो आपको याद ही होगा । उसकी याद मैं यहाँ फिर दिलाता हूँ । इसमें राष्ट्रीय शिक्षा-संस्थाकी जो व्याख्या की गई है, वहाँ उपस्थित लोगोंको उससे कोई विरोध न था । विरोध मनमें था, परन्तु उन्होंने उसे प्रकट नहीं किया, ऐसा मानना तो मेरे लिए, उनके लिए, उनके देशके लिए अप्रतिष्ठाकी बात है । इतने अधिक बुद्धिमान, स्वतन्त्रचेता और प्रौढ़ व्यक्ति जो सम्मति दें, वह सच्चे मनसे नहीं दी गयी है, हार्दिक नहीं है, ऐसा मैं कैसे मान सकता हूँ ? इसीलिए मैं कहता हूँ कि इस व्याख्यासे हजारों व्यक्ति सहमत थे । अब काठियावाड़ परिषद् ने भी यह व्याख्या स्वीकार कर ली है । यह व्याख्या क्या है ? राष्ट्रीय विद्यामन्दिरकी गिनतीमें वही पाठशाला आ सकती है, जिसमें चरखेका काम चलता है, जिसमें शिक्षक और विद्यार्थी आधा घंटा चरखा चलाते हैं और दोनों हाथ - कते सूत से बनी खादी ही पहनते हैं, जिसमें शिक्षाका माध्यम मातृभाषा अथवा हिन्दुस्तानी है, जिसमें व्यायामको पूरा-पूरा स्थान है, जिसमें आत्म-रक्षाकी भी शिक्षा दी जाती है, जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानोंको एक हृदय बनानेके लिए प्रयत्न किया जाता है और जिसमें अन्त्यजोंका किसी भी तरहसे बहिष्कार नहीं किया जाता है। कांग्रेसने राष्ट्रीय विद्यामन्दिरकी यह व्याख्या की है। इसलिए मैं जब कहता हूँ कि जिन्हें चरखेपर श्रद्धा न हो उन्हें विद्यापीठके अधीन चलनेवाली सभी संस्थाओंका त्याग कर देना चाहिए तो आप यह न मानें कि मैं कुछ बढ़ा-चढ़ाकर कह रहा हूँ । इसमें प्रगति निहित है । ऐसा करनेसे मालूम हो जायेगा कि हम किस दिशामें जा रहे हैं और कितने स्त्री-पुरुष तथा छात्र-छात्राएँ हमारे साथ हैं । मेरा ध्यान 'साबरमती' में प्रकाशित एक लेखकी टीकाकी ओर आकर्षित किया गया था। उसमें उठाई गई कुछ शंकाएँ निराधार हैं, क्योंकि उनमें मुझपर जो विचार रखनेका आरोप है, वे मेरे हैं ही नहीं । चरखेको विद्यार्थी अपना सारा समय दें, ऐसा तो मैंने कहा ही नहीं । मेरे विचार ऐसे हैं ही नहीं, सो बात नहीं। मैं यदि विद्यार्थियोंको और देशको समझा सकूं कि यही बात देशके लिए उत्तम है तो अवश्य हूँ कि आप सारा समय चरखा चलानेमें लगायें। लेकिन आज मैं यह बात देशको समझा नहीं सकता । आज मैं स्वयं ही यह नहीं कर सकता। मैं स्वयं सारा समय चरखा चलाने में लगा सकूँ तो देशसे और विद्यार्थियोंसे भी कहूँ। मेरी आकांक्षा यह अवश्य है कि मैं हिन्दुस्तानको बता सकूँ कि चौबीस घंटे चरखा चलानेमें ही शुद्ध विद्या निहित है । वैसे तो यदि हम किसी भी स्वच्छ वस्तुको लेकर बैठ जायें और उसमें एकाग्रता प्राप्त करें तो उसमें भी शुद्ध विद्या है ही। कारण, इस तरह हम योगकी साधना करते हैं। लेकिन अभी मैं यह बात नहीं कहता। अभी तो मैं विद्यार्थियोंसे इतना ही कहता हूँ कि आप श्रद्धापूर्वक, आनन्दसे चरखा चलायें, अच्छी तरह् कातें तथा चरखा चलानेकी कला सीख लें एवं जितनी आतुरता व प्रेम आप १. गुजरात महाविद्यालयका एक गुजराती द्वि मासिक । Gandhi Heritage.Portal