पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/६५६

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६२० सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय आशाओंको रखूं, यह उचित नहीं है । आपसे तो इतना ही कहूँगा कि विद्यापीठका भविष्य क्या होगा, इसके प्रपंचमें आप विद्यार्थी लोग न पड़ें। आप मान लें कि आप जो विद्यापीठमें हैं सो उचित ही है, सरकारी स्कूलोंमें जाना उचित नहीं है और सचमुच जो शिक्षा मिलनी चाहिए वह वर्तमान स्थितिमें वहाँ मिलनेवाली नहीं है । आपके मनमें जबतक यह बात है कि सरकारी स्कूलोंसे हिन्दुस्तानको जो चाहिए वह नहीं मिला है और न आगे मिलनेवाला है, तभीतक आप विद्यापीठमें रहें। यदि आपको लगे कि सरकारी संस्थाओं में यह सब मिल जाता है तो आपका सरकारी संस्थाओंमें जाना ही ठीक है । उस हालत में आपको इस झंझट में पड़नेका कोई कारण नहीं कि विद्यापीठका भविष्य क्या होगा । सरकारी पाठशालाओंके सम्बन्धमें आपके मनमें दृढ़ विराग होना चाहिए। विराग होना अर्थात् उन पाठशालाओंके बारेमें आपमें त्यागवृत्ति हो, राग नहीं । जबतक राग होगा तबतक आप विद्यापीठकी सरकारी स्कूलोंके साथ तुलना करते ही रहेंगे। हर समय मनमें कहेंगे कि वहाँ इतनी सुविधाएँ हैं और यहाँ वे नहीं हैं । विद्यापीठमें सुविधाएँ नहीं हैं, यही इसकी विशेषता है। अगर यहाँ भी सुविधाएँ जुटा देंगे, तो फिर हम मुसीबतोंको लांबना नहीं सीख सकेंगे । अथवा यों कहें कि यहाँ भिन्न प्रकारकी सुविधाएँ हैं अतः यहाँ कुछ विशेषता तो होनी ही चाहिए । सरकारी स्कूलोंके साथ इस विद्यापीठके स्कूलोंकी तुलना तो की ही नहीं जा सकती । इतनी ही बात यदि आपके मनमें घर कर जाये तो फिर विद्यापीठका भविष्य क्या होगा, इसकी आपको क्या चिन्ता ? आप अपना कर्त्तव्य पालन करके इतना कह सकें कि हमने स्वराज्यकी लड़ाईमें पूरी-पूरी मदद की, यही पर्याप्त है। इससे अधिक जाननेका आपको और मुझे अधिकार नहीं है । मैं तो इतना ही जानता हूँ कि जबतक विद्यापीठ स्वराज्य की लड़ाईमें सहायक होगा - • तबतक वह चलेगा, जब स्वराज्यकी लड़ाईमें सहायक नहीं होगा, उसी समय इसका नाश हो जायेगा । और तब अगर उसका नाश हो तो इसमें बुरा क्या है ? बल्कि तब उसका नाश इष्ट ही है। हिन्दुस्तान के स्वराज्यका भविष्य ही विद्यापीठका भविष्य है । हमें जो अच्छा लगता है, वही हमेशा हितकर नहीं होता। मैं बूढ़ा हो गया हूँ फिर भी मुझे लगता है कि मुझे जो अच्छा लगता है, वह सब मेरे लिए हितकर नहीं होता । अतएव, अनेक बातों में हमें बड़ोंकी सलाह लेनी पड़ती है। इसीसे हमारे यहाँ यह प्राचीन प्रथा चल रही है कि गुरुकी खोज करके उसकी शरण लो, उसका आधार लो, उसकी गोदमें सिर रखकर कहो कि आप अपनी इच्छानुसार मुझे चलायें, आपको जो अच्छा लगे सो हमारी बुद्धिमें भरें। आजकल तो वैसा गुरु कहीं मिल नहीं सकता, इसलिए आज ऐसे स्वार्पणकी बात नहीं उठती । यहाँ तो मात्र ऐसी श्रद्धाकी ही जरूरत है कि शिक्षक हमें अच्छे मागकी ओर प्रेरित करते हैं, बुरे मार्गकी ओर नहीं । अनेक वस्तुएँ आरम्भमें कड़वी होती हैं, लेकिन उनका फल अमृतमय होता है, ऐसी श्रद्धा रखकर आप कड़वे घूँट भी पी जायें। यही मेरी सलाह है और मेरी विनती है । अब मैं फिर, आपने जो प्रतिज्ञा ली है, उसपर वापस आना चाहता हूँ । भाई आठवलेने जो प्रार्थना पढ़ी है, उसकी ओर भी आपने ध्यान दिया होगा। दोनों १. आर० वी० आठवले, गुजरात विद्यापीठमें संस्कृतके आचार्यं । Gandhi Heritage Portal