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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

होती है और मुझे जीवित रहना अच्छा नहीं लगता। यदि मैं यह न जानता होता कि मैं ज्यों-ज्यों 'महात्मा' शब्दका प्रयोग न करनेपर जोर देता हूँ त्यों-त्यों उसका प्रयोग अधिकाधिक होता है तो मैं जरूर लोगोंसे स्पष्ट 'ना' कह देता। आश्रममें, जहाँ मैं जीवन यापन करता हूँ, बच्चों, स्त्रियों और पुरुषों, सभीको आज्ञा है कि वे 'महात्मा' शब्द का प्रयोग न करें। किसीको पत्र लिखें तो भी मेरा उल्लेख 'महात्मा' शब्दसे न करें, सिर्फ गांधी या गांधीजी कहा करें। जिन लोगोंने भाई जमनादासको रोका है उन्होंने मेरे प्रति अशिष्टता की है, शान्ति भंग की है। हमारा संग्राम शान्तिमय है। शिष्टताके बिना शान्ति कैसे हो सकती है? विनयहीन शान्ति, जड़ शान्ति होगी। हम तो चैतन्यके पुजारी है और चैतन्यमय शान्तिमें विवेक और विनय जरूर रहते हैं। इसलिए मेरी सलाह है कि जिन लोगोंने जमनादासजीके भाषणमें रोकटोक की है वे सब उनसे माफी माँगें। जमनादासजीने तो मेरी बड़ी स्तुति की है। परन्तु अगर उन्होंने यह भी कहा होता कि गांधीके बराबर दुःखदायी मनुष्य कोई भी नहीं है--और जो ऐसा मानता हो उसे ऐसा कहनेका पूरा अधिकार है--तो भी उसे रोकनेका अधिकार किसीको नहीं हो सकता। हमें उसके भाषणको शिष्टतापूर्वक सुनना चाहिए।

इतनी बात सुनते ही एक सज्जनने सामनेकी पहली गैलरीमें खड़े होकर प्रणाम करके सिर नवाया। गांधीजीने कहा:

इतना काफी है। किन्तु अभी एक-दो सज्जन ऊपर भी हैं। क्या वे माफी न माँगेंगे? मैं कहता हूँ कि जो माफी नहीं माँगेंगे वे स्वराज्य लेनेके अयोग्य हैं।

सभाम से भी 'खड़े हो जाओ', 'माफी माँगो' की आवाजें आई। इसपर दो सज्जनोंने खड़े होकर माफी माँगी। गांधीजीको शांति मिली और जब उन्होंने फिर बोलना आरम्भ किया तब शेष एक सज्जनने भी खड़े होकर माफी माँग ली।

अच्छा, अब कोई ऐसा कुसूर न करे। जितने मनुष्य उतने मत हुआ करते हैं। यदि हम एक-दूसरेके विचारोंको बरदाश्त न करेंगे तो कैसे काम चल सकता है? आज हिन्दू मुसलमानको सहन नहीं कर सकते और मुसलमान हिन्दुओंको सहन नहीं करते और मन्दिरोंको तोड़ते हैं। यदि दोनों सहिष्णुताका पाठ सीख लें तो तमाम झगडे़ बन्द हो जायें। सब लोगोंको अपने जीवनमें सर्वत्र सहिष्णुताका व्यवहार करना चाहिए। एक बार जहाँ उसका प्रचार हुआ कि फिर हिन्दू-मुसलमान और पारसी सब एक-दूसरेके विरोधको सहन करेंगे। हमारी प्रगतिमें बाधक सबसे बड़ी वस्तु असहिष्णुता है। मैं इस स्थितिको दूर करनेकी कोशिश कर रहा हूँ। मैं तो तुच्छ प्राणी हूँ, कोई महापुरुष नहीं। यदि महापुरुष होता तो इस असहिष्णुताको रोक देता। अभी मुझमें शुद्धता, प्रेम, विनय और विवेककी कमी है; नहीं तो आपको मेरी आँखों और जिह्वामें ऐसी शक्ति दिखाई देती कि आप क्षण-भरमें समझ जाते कि शान्तिमय असहयोगका तरीका यह नहीं है। मैं तो आपसे कह चुका हूँ कि डायर हमारा शत्रु नहीं है। ओ'डायर भी हमारा शत्र नहीं है। उन्हें आप अपना शत्र न मानें। भले ही उन्होंने शत्रुओंके समान काम किया होगा, फिर भी आप उनपर