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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सहन करने लगेंगे। मैं अपने आपको धोखा नहीं दे सकता। अपनी तारीफ सुनकर मैं यह नहीं मान लेता कि मैं उस तारीफके लायक हूँ। मेरी स्तुतिका अर्थ सिर्फ इतना ही है कि अभी मुझसे अधिक आशा रखी जाती है---अधिक प्रेमकी, अधिक त्यागकी, अधिक सेवाकी आशा की जाती है। परन्तु मैं यह किस तरह कर सकूँगा? मेरा शरीर अब कमजोर पड़ गया है। इसका कारण है मेरे पाप। बिना पाप किये मनुष्य रोगी नहीं होता। ईश्वरने हमें शरीर नीरोग रखनेके लिए दिया है। पापका मतलब है कुदरतके नियमोंका जान व अनजानमें उल्लंघन। अनजानमें भी राज्यके कानूनका उल्लंघन करनेपर दण्ड मिलता है। फिर प्रकृतिके कानूनको भंग करने का परिणाम दूसरा कैसे हो सकता है? चोरको माफी नहीं मिल सकती। हाँ, यदि अपराध अनजानमें हुआ हो तो सजा कुछ कम मिलती है। इसके अलावा और कोई भेद नहीं है। मैं जो बीमार हुआ उसका कारण मेरा ऐसा कोई पाप ही है और जबतक मेरे हाथों ऐसे पाप जानमें या अनजानमें होते रहेंगे तबतक समझना चाहिए कि मैं अपूर्ण मनुष्य हूँ। अपूर्ण मनुष्य पूर्ण सलाह कैसे दे सकता है? इससे मैं उलझनमें पड़ा हुआ हूँ।

तिसपर भी मेरे पास दूसरा कोई साधन नहीं है। मेरे पास बस एक ही साधन है--सत्याग्रह। अबतक मैंने सत्याग्रहका भीषण स्वरूप देशके सामने रखा है। अब मैं उसका शान्त, मधुर और गम्भीर स्वरूप रखना चाहता हूँ। यदि उसपर आचरण किया जाये तो फिर जय ही जय है। मैं मानता हूँ कि मझे सत्याग्रह-शास्त्र पूरी तरह ज्ञात है। मुझे बराबर यह भय बना रहता है कि आजकी हालतमें भारत सत्याग्रहके उग्र स्वरूप को निभा न सकेगा। यदि हम समझदारीके साथ शान्त स्वरूपपर अमल करेंगे तो हम बेलगाँवके कांग्रेस अधिवेशनसे पहले बहुत-सा काम कर सकेंगे। इसमें सहयोगी, असहयोगी, कट्टर अपरिवर्तनवादी, परिवर्तनवादी, स्वराज्यवादी, उदारदलीय, कनवेन्शनवादी, हिन्दू, मसलमान, पारसी, ईसाई आर यहूदी सब शामिल हो सकते हैं। सत्याग्रहका अर्थ केवल सविनय अवज्ञा ही नहीं है।

मैंने कल ही पण्डित मोतीलालजीको कई सुझाव भेजे हैं। पण्डितजीसे मेरी कितनी घनिष्ठता है, यह बात सब लोग जानते हैं। मैंने पत्रमें उनके सम्मुख अपना सारा हृदय खोलकर रख दिया है, क्योंकि यदि मैं उन्हें समझा सका तो औरोंको भी समझा सकूँगा। विदुषी बेसेंट कल मुझसे मिलने आई थीं। मैंने उनसे भी यही बातें कही थीं। विदुषी बेसेंटकी उम्र कहाँ? उनका अनुभव कहाँ? उनके सामने तो मैं एक बालक-सा हूँ। मैंने उनके सामने उसी तरह अपनी बात पेश की जिस तरह बच्चा माँके सामने करता है। इतनी ही नम्रतासे मैं अपने विचार श्री शास्त्रीजीके[१] सामने पेश करूँगा। मैं अंग्रेजोंसे भी यही बात करूँगा। यदि सब लोगोंकी समझमें यह बात आ जाये तो हमें तुरन्त इसका लाभ मिल सकता है। मैं यहाँ तफसीलमें नहीं जाना चाहता। किन्तु आप इतना जरूर समझ जायेंगे कि इसमें चरखा अवश्य ही शामिल था। मेरी तमाम योजनाओंके किसी-न-किसी कोने में चरखा जरूर होता

  1. वी० एस० श्रीनिवास शास्त्री।