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भाषण: एक्सेल्सियर थियेटर, बम्बई में

है। इसके बिना न मैं जी सकता हूँ और न भारत हीं जी सकता है। मुझे तो लगता है कि ऐसा समय आ रहा है जब इसके बिना आपका भी काम न चल सकेगा।

आप मुझे 'महात्मा' मानते हैं। इसका कारण न तो मेरा सत्य है और न मेरी अहिंसावृत्ति; बल्कि इसका कारण दीन-दुखियोंके प्रति मेरा अगाध प्रेम है। चाहे कुछ भी हो जाये, पर मैं इन फटेहाल नरकंकालोंको नहीं भूल सकता, नहीं छोड़ सकता। इसीसे आप समझते हैं कि गांधी कुछ कामका आदमी है। इसलिए मैं अपने प्रेमियों, रतनशी, जमनादास, पिक्थॉल, जयकर सबसे कहता हूँ, आप यदि मेरे प्रति प्रेम-भाव रखते हैं तो ऐसी कोशिश करें कि देहातके लोग जिन्हें मैं प्रेम करता हूँ, अन्न-वस्त्रके बिना न रहें। आप इन दीन-दुखियोंको भेजें, उनकी सेवा करें। किस तरह भेजें सो मैं बताता हूँ । आप झूठ-मूठको उनके नामकी माला न फेरें। जो झूठ-मूठको माला फेरकर भजेगा उसे मुक्ति कभी नहीं मिलेगी; उलटे उसकी अधोगति होगी; क्योंकि वह ऊपरसे माला फेरते हुए भी मन-ही-मनमें सानपर छुरी ही धरता है। मैं मानता हूँ कि चरखा चलाते हुए भी मेरे मनमें मलिनता होना सम्भव है। परन्तु मैं मलिनता होते हुए भी कातनेके बाह्य फलसे तो वंचित नहीं रह सकता। मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि ईश्वर या खुदाका नाम लेकर मैं भारत के गरीब बच्चों के लिए चरखा कातता हूँ और आपसे भी ऐसा ही करनेकी प्रार्थना करता हूँ। हो सकता है कि इसमें मेरी भूल हो। भविष्यमें शायद अर्थशास्त्री बतायेंगे कि इसमें भूल थी, परन्तु वे कबूल करेंगे कि इस भूलसे भी लाभ ही हुआ है; क्योंकि उससे थोड़ा-बहुत सूत तो मिला और देशमें कपड़े की बढ़ोतरी हुई। आप मुझे सर दिनशा वाछाका[१]शिष्य ही समझें। उन्होंने बताया कि भारतमें फी आदमी १३.५ गज कपड़ेकी दरकार है; परन्तु मिलता है सिर्फ ९.५ गज ही। अर्थात् फी आदमी ४ गज कपड़ा और तैयार करने की जरूरत है। यदि आप हर रोज १०० गज सूत कातेंगे तो उससे सूतका कितना बड़ा ढेर लग जायेगा। 'बहुतसे धागोंसे रस्सी बनती है' इस कहावत में तथ्य है। यदि हम सब मिलकर सूत कातेंगे उससे हिन्दुस्तानको ढक सकेंगे और बाँध सकेंगे। मुझे तो अटल विश्वास है कि यदि आप एक बार कातने लगेंगे तो कहेंगे कि गांधी ठीक कहता था।

मुझे इस बातपर विश्वास है कि मेरे प्रति आपका जो प्रेम है उसका कारण इसके सिवाय और कुछ नहीं है कि मैंने दीन-दुखियोंके साथ तादात्म्य कर लिया है। मैं, भंगी के साथ भंगी हो सकता हूँ और ढेढ़के साथ ढेढ़ होकर उसका काम कर सकता हूँ। यदि इस जन्ममें अस्पृश्यता न मिटे और मुझे दूसरा जन्म लेना पड़े तो मैं चाहता हूँ कि मेरा जन्म भंगीके ही घरमें हो। यदि अस्पृश्यता कायम रहे और मेरे लिए हिन्दू धर्म छोड़ना सम्भव हो तो मैं उसे जरूर छोड़ दूँगा और कलमा पढ़ लूँगा या बपतिस्मा ले लूँगा। परन्तु मुझे तो अपने धर्मपर इतनी श्रद्धा है कि मुझे उसीमें जीना और उसीमें मरना है। सो इसके लिए भी यदि फिर जन्म लेना पड़े तो मैं भंगीके

  1. दिनशा ईदुलजी वाछा ( १८४४-१९३६ ); पारसी राजनीतिज्ञ; १९०१ के कांग्रेस अधिवेशनके अध्यक्ष।