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भाषण: एक्सेल्सियर थियेटर, बम्बईमें

यदि अपने करोड़ों भाई-बहनोंके प्रति हमारा ऐसा प्रेम हो तो हम उन्हें और वे हमको सूतके तारसे बाँध लेंगे। मैं तो यही अर्थशास्त्र जानता हूँ, दूसरा नहीं।

एक और बात भी कह देता हूँ। आपने नागपुरके दंगेकी बात तो सुनी ही होगी। हिन्दुओंके मनमें मैल है; मुसलमानोंके मनमें भी मैल है। इस स्थितिमें मैं अपनी तीन बातोंके सिवा और क्या पेश कर सकता हूँ। आप सत्याग्रहके वर्तमान शान्तिमय प्रयोगमें इन तीन बातोंको जरूर देखेंगे। यदि आप सब इतनी बात याद रखेंगे तो मेरा खयाल है कि हम सब एक ही मंचपर खड़े हो सकेंगे। अदालत, विधान सभा इत्यादिके त्यागकी बात अलग रखें। हम सब इनमें एक नहीं हो सकते लेकिन जितनी बातोंमें हमारा मेल हो सकता है उतनी बातोंमें तो हम सबको साथसाथ ही रहना चाहिए।

गांधीजीने इसके बाद इन्हीं विचारोंको गुजराती न समझनेवाले लोगोंके लिए अंग्रेजीमें कहा। विचार तो वे ही थे किन्तु उनमें कुछ नवीनता भी थी।

मैंने गुजरातीमें अपने हृदयका सारा उफान निकाल दिया है। अब मैं इतना थक गया हूँ कि अधिक नहीं कह सकता। मैंने बहुत सारी बातें कह दी हैं। उनका सार यही है कि मेरे स्वभावके दो रूप है: एक उग्र और दूसरा शान्त। उग्र या भयंकर रूपके कारण अनेक लोग मुझसे अलग हो गये हैं। इसके कारण मेरा अपनी पत्नी, अपने पुत्र और अपने स्वर्गीय भाईसे भी मतभेद हो गया था। दूसरे रूपमें तो लबालब प्रेम-ही-प्रेम है। पहले रूपमें प्रेमको खोजना पड़ता है। मुझ जैसे कठोर आत्मनिरीक्षक दूसरे कम ही होंगे। मुझे विश्वास है कि पहले रूपमें द्वेषकी गन्धतक नहीं है; परन्तु उसमें हिमालय-जैसी भयंकर भूलोंकी सम्भावना रहती है। किन्तु मनोविज्ञानके ज्ञाता आपको बतायेंगे कि दोनों का उत्पत्ति-स्थान एक ही है। अथाह प्रेम भीषण रूप धारण कर सकता है। यदि मैंने अपनी पत्नीको दुःख पहुँचाया है तो उससे मेरे दिलमें गहरा घाव हुआ है। यदि मैंने दक्षिण आफ्रिकामें अपने रातदिनके साथी अंग्रेजोंको दुःख पहुँचाया है तो उनसे अधिक दुःख मुझे हुआ है। यदि मैंने अपने यहाँके कार्योसे अंग्रेजोंका जी दुखाया है तो उनसे अधिक दुःख मेरे जीको हुआ है।

मैं अंग्रेजोंसे कहता हूँ, "तुमने हमें खूब चूसा है, आज भी चूस रहे हो, परन्तु तुम्हें ज्ञान नहीं है। तुम हमपर अत्याचार करते हो। तुम इसके लिए पछताओगे।" मुझे इंग्लैंडकी आँखें खोलने के लिए अपना भयंकर रूप प्रकट करना पड़ा है। मैं ऐसा कहता हूँ तो इसका कारण यह नहीं कि मैं उन्हें कम चाहता हूँ बल्कि यह है कि मैं उन्हें स्वजनोंकी ही तरह चाहता है। परन्तु अब मेरा वह भीषणरूप नहीं रहा है। मैंने पण्डित मोतीलालजीसे कहा है कि अब तो मुझमें लड़नेकी भावना ही नहीं रह गई है। मैं तो शरणागत हूँ। जब हमारे घरमें ही फूट फैली हुई है और कटुता और शत्रुता बढ़ रही है, तब दूसरा विचार ही कैसे हो सकता है? मुझे तो इस हालतको दुरुस्त करने के लिए भगीरथ प्रयत्न करना होगा। मैं इस तरहका कोई विरोध नहीं करना चाहता जिससे बेलगाँवके अधिवेशनमें या उससे पहले देशमें फूट

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