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भाषण: रावलपिंडीमें

ऐसी बात नहीं है कि मैं आपको कोहाट वापस जानेकी सलाह दे सकूँ; बल्कि मेरी इच्छा इससे उलटी सलाह देनेकी ही होती है। सम्भव है कि इन मुसलमान भाइयोंसे मेरी जो बातचीत चल रही है वह सफल न हो। फिर कोहाटमें जिन मुसलमानोंका प्रभाव है, वे यहाँ नहीं आये हैं। उन्होंने तो तार भेजा है और उसमें कहा है कि यहाँ समझौता हो गया है, हिन्दू कोहाट वापस आ रहे हैं। फिर आप हमें क्यों बुलाते हैं और इस तरह लोगोंके दिलोंमें घबराहट पैदा क्यों करते हैं? इसका मतलब यह है कि मुझे और शौकत अलीको इस मामले में दखल न देना चाहिए; किन्तु जो मुसलमान यहाँ आये हैं उनसे बातचीतके दौरान जब मैंने यह पूछा कि क्या वे हिन्दुओंको कोहाट ले जानेकी जिम्मेदारी लेते हैं तब उनमें से एक साहबने साफ कहा, "यदि हिन्दू फिर वापस कोहाट जाना चाहते हों तो जायें; किन्तु हम कोई जिम्मेदारी नहीं ले सकते। हम तो उनको बुलावा भी नहीं दे सकते, क्योंकि वहाँ आज जो हिन्दू है उनसे ही घृणा की जाती है।" इसलिए मैं आपको कोहाट वापस जानेकी सलाह नहीं दे सकता।

एक दूसरी बात भी है। यदि आप वहाँ सरकारकी शक्तिसे जाना चाहते हों और आपने सरकारसे जो बातचीत की है उससे आपमें कुछ विश्वास उत्पन्न होता हो तो यह आपकी मर्जीकी बात है। किन्तु मैं तो अब भी निश्चित रूपसे यही मानता हूँ कि हम इस सरकारसे मिलकर काम करनेसे या इसकी मार्फत काम करानेसे कोई फायदा नहीं उठा सकेंगे। मैं इसीलिए यह सलाह नहीं देता कि आप सरकारके संरक्षणमें कोहाट जायें। आप जहाँ भी रहें वहाँ अपनी शक्तिके आधारपर रहें।

यदि कोहाट जानेके सम्बन्धमें किसीके साथ बातचीत करनेकी जरूरत है तो वह है मुसलमानोंके साथ करनेकी। एक तो उनकी संख्या बहुत है। यदि उनकी संख्या बराबरकी भी होती तो भी चूँकि आप उनके डरसे भाग कर यहाँ आये हैं, इसलिए आपका उनसे बातचीत किये बिना वापस जाना ठीक नहीं है। यदि कोई मनुष्य पैसेकी खातिर या अपनी जानकी खातिर अपनी इज्जत आबरू खोकर वहाँ जाये तो अलग बात है; मेरे विचारसे इस तरह जीना, जीना नहीं है, वह तो मरनेके बराबर है।

कल मैंने एक अत्यन्त खेदजनक बात सुनी और वह यह है कि आपमें से बहुतोंने अपनी जान बचानेके लिए पहले इस्लाम स्वीकार कर लिया और तब आप यहाँ आये। मेरी दृष्टिसे तो ऐसे लोग वास्तवमें मुसलमान नहीं हुए हैं; अपनी जान बचानेके लिए डरके मारे मुसलमान हुए हैं। यदि ऐसी बात न होती तो वे यह क्यों कहते कि "हमारी चोटी काटो और हमें कलमा पढ़वाओ।" यदि हम ऐसा करें तो गायत्रीका कोई अर्थ ही न रहे और हिन्दू धर्म भी निकम्मा माना जाये। यही बात आर्यसमाजियों और सिखोंपर भी लागू होगी। मेरे कहनेका अर्थ यह है कि चाहे हमारा अस्तित्व मिट जाये; किन्तु हमें अपना धर्म परिवर्तन नहीं करना चाहिए। हमारा सच्चा धन रुपया-पैसा नहीं है, जर और जमीन नहीं है। ये तो ऐसी चीजें हैं जो लूटी जा सकती हैं। किन्तु हमारा सच्चा धन हमारा धर्म है। जब हम इसे गँवा देंगे तब कहना चाहिए कि हमने अपने घर खुद ही लूट लिये हैं। जबसे