पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/१३

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सात

मतभेदको सार्वजनिक रूपसे स्वीकार करनेके सम्भावित परिणामोंसे वह अवगत थे। "मैं आपका वक्तव्य प्रकाशित करने के विचारतक से काँप उठता हूँ। उसके प्रकाशनसे कटुतापूर्ण विवाद छिड़ जायेगा" (पृष्ठ १८५)। लेकिन सत्यकी शक्तिमें उनकी निष्ठा पूर्ण थी और उन्हें लगा कि खतरा अवश्य उठाया जाना चाहिए। "लेकिन यदि एक ही निष्कर्षपर पहुँचने के हमारे सभी उपाय विफल हो जायें तो हमें जनताके समक्ष अपने मतभेद प्रस्तुत करने और उसपर यह बात जाहिर कर देनेका साहस अवश्य करना होगा कि इन मतभेदोंके बावजूद हम दोनोंके बीच प्रेम बना रहेगा, और हम साथ-साथ काम करते रहेंगे" (पृष्ठ १८५)। हकीम अजमलखाँने सुझाव दिया, और पंडित मोतीलाल नेहरू उनसे सहमत थे, कि वक्तव्योंको प्रकाशित नहीं करना चाहिये। लेकिन गांधीजीने १९ मार्चको दोनों वक्तव्य इस स्पष्टीकरणके साथ अखबारोंको, दे दिये: "लेकिन हम, कमसे-कम मैं तो इस नतीजेपर पहुँचा हूँ कि जनताको, जो मुझे और अली भाइयोंको कुछ सार्वजनिक प्रश्नोंपर हमेशा एक मानती थी, यह भी जान लेना चाहिए कि कुछ प्रश्नोंपर हममें भी मतभेद हो सकता है। इस मतभेदके बावजूद हमारे मनमें यह शंका नहीं आई कि हममें से किसीने जानबूझकर पक्षपात किया है या सत्य प्रमाणोंको तोड़-मरोड़कर उससे अपना मतलब निकाला है और न इससे हमारे आपसी प्रेममें कोई फर्क ही आया है। हम यदि खुले तौर से अपने मतभेदोंको स्वीकार कर लेंगे तो वह जनताके लिए आपसी सहनशीलताका एक पदार्थपाठ बन सकेगा" (पृष्ठ ३३३)।

दूसरा प्रश्न जिसपर गांधीजीके रुखसे विवाद उत्पन्न हुआ, वह भी बहुत नाजुक था। एक समाचारके अनुसार अफगानिस्तानमें अहमदिया सम्प्रदायके दो सदस्योंको धर्मत्यागके दण्ड-स्वरूप पत्थर फेंक-फेंककर मार डाला गया था। इस समाचारपर 'यंग इंडिया' में टिप्पणी करते हुए गांधीजीने लिखा था: "मुझे मालूम हुआ है कि 'कुरान' में केवल कुछ अवस्थाओंमें ही संगसारीकी हिदायत दी गई है, किन्तु जिन मामलोंपर हम विचार कर रहे हैं उनपर ये अवस्थाएँ लागू नहीं होती। मैं मनुष्य हूँ और ईश्वरसे डरता हूँ। इस रूपमें किन्हीं भी स्थितियोंमें ऐसे तरीकोंकी नैतिकतापर मुझे शंका करनी चाहिए।...प्रत्येक धर्मके प्रत्येक नियमको विवेकके इस युगमें पहले विवेक और व्यापक न्यायकी अचूक कसौटीपर कसना होगा। तभी उसपर संसारकी स्वीकृति माँगी जा सकती है। किसी भूलका समर्थन संसारके समस्त धर्मग्रन्थों में भी किया गया हो तो भी वह इस नियमसे मुक्त नहीं हो सकती" (पृष्ठ १९५-९६)। कट्टरपन्थियोंके लिए यह रवैया बहुत ही क्रान्तिकारी था और इसपर कुछ आक्रोशपूर्ण आपत्तियाँ की गई। पंजाब खिलाफत समितिके अध्यक्षने लिखा "आपने...अपने लाखों मुसलमान प्रशंसकोंके दिलमें यह भावना पैदा कर दी है कि आप उनकी रहनुमाई करने लायक नहीं है" (पृष्ठ २२०)। गांधीजीने स्पष्ट किया कि उन्होंने 'कुरान' की नहीं, केवल उसके व्याख्याकारोंकी आलोचना की है। लेकिन ऐसा कतई नहीं था कि वह अपने बचावपर आ गये हों। उन्होंने बहुत स्पष्ट रूपसे घोषणा की कि "खुद 'कुरान' की शिक्षाएँ भी आलोचनासे मुक्त नहीं रह सकतीं" (पृष्ठ २२१)। उन्होंने अपनी स्थिति और स्पष्ट करते हुए