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आठ

लिखा: "इस्लामके सम्बन्धमें लिखते समय में उसकी इज्जतका खयाल उतना ही रखता हूँ, जितना हिन्दू धर्मकी इज्जतका। इस्लामकी व्याख्या करनेके लिए मैं वही पद्धति अपनाता हूँ जो हिन्दू धर्मके लिए। मैं हिन्दू धर्मग्रंथोंके किसी भी आदेशका समर्थन केवल इस आधारपर नहीं करता कि वह शास्त्रकी आज्ञा है। इसी तरह मैं 'कुरान' की किसी बातको भी केवल इसलिए नहीं मान सकता कि वह 'कुरान' में लिखी है। प्रत्येक बात विवेककी कसौटीपर कसी जानी चाहिए। लोगोंकी विवेक-बुद्धिको इस्लाम जँचता है, तभी वह उन्हें पसन्द आता है" (पृष्ठ ४१०)।

धर्मके मामलेमें रूढ़ि और शास्त्रोंके बारेमें गांधीजीका जो आलोचनात्मक रवैया था वह अस्पृश्यताके विरुद्ध उनके अनवरत अभियानसे बहुत सशक्त रूपसे प्रकट होता है। गुजरात और दक्षिण भारत, दोनों जगहोंपर उन्होंने लोगोंकी विवेक बुद्धिको स्पर्श करनेकी कोशिश की। मद्रासकी एक सार्वजनिक सभामें उन्होंने कहा: "यदि कोई मुझसे कहे कि शास्त्रोंमें किसी ऐसी बुराईका समर्थन है तो मुझे ऐसे शास्त्रोंकी जरूरत नहीं, लेकिन जिस प्रकार सभामें हमारी उपस्थिति की बात निश्चित है उसी प्रकार मैं निश्चित रूपसे जानता हूँ कि शास्त्रोंमें ऐसी किसी पैशाचिकताका प्रतिपादन या आदेश नहीं है। यह कहना कि जन्मके कारण कोई भी मनुष्य अस्पृश्य, अनुपगम्य या अदर्शनीय हो जाता है, ईश्वरकी सत्ता माननेसे इनकार करना है" (पृष्ठ ३६८)। उन्होंने इस बुराईको उसके सबसे खराब रूपमें त्रावणकोर राज्यमें देखा था। "धर्मान्ध लोग, कुछ लोगोंको देखनातक पाप समझते हैं। नयाडी लोगोंके लिए तो यह आवश्यक होता है कि वे सवर्णोंकी नजरके सामने भी न आयें। मैंने त्रिचूरमें इस जातिके दो मनुष्य देखे थे जिनकी देह तो मनुष्यकी थी पर फिर भी वे मनुष्य नहीं थे। (हँसी) भाइयो, यह हँसनेकी बात नहीं, खुनके आँसू बहानेकी बात है" (पृष्ठ ३६८)। इस यात्रामें गांधीजीका मुख्य उद्देश्य था कि वे इन अभागी जातियोंके लिए एक सार्वजनिक सड़कको खुलवानेके लिए वाइकोममें चल रहे सत्याग्रहके पक्षमें जनमत तैयार करें। इस उद्देश्यसे वे राज्यके अधिकारियोंसे तथा कट्टरपन्थियोंके प्रतिनिधियोंसे भी मिले। उन्होंने इन प्रतिनिधियोंके सम्मुख तीन वैकल्पिक प्रस्ताव रखे, जो तीनों ठुकरा दिये गये। इसपर भी गांधीजीने सत्या-ग्रहियोंको सलाह दी कि वे सुधारके विरोधियोंके प्रति सद्भाव रखें और उन्हें अपने उद्देश्यकी सचाईका श्रेय दें। "मैंने पाया है कि जहाँ पूर्वग्रह युगों पुराने हों और तथाकथित धार्मिक प्रमाणोंपर आधारित हों, वहाँ केवल तर्कद्वारा समझानेकी कोशिश बेकार जाती है। तर्कको कष्ट-सहन द्वारा मजबूत करना होगा और कष्टसहन विवेकको जगा देता है। इसलिए हमारे कार्योंमें जबरदस्ती लेश-मात्र भी नहीं होनी चाहिए" (पृष्ठ २६५)।

अपने अस्पृश्यता-विरोधी अभियानके दौरान गांधीजीसे जाति प्रथा तथा अंतर्जातीय भोज और विवाहोंपर लगे प्रतिबन्धोंके बारेमें उनके विचार पूछे जाते थे। उन्होंने कहा: "मैं अस्पृश्यता और वर्ण या जातिमें बहुत बड़ा अन्तर मानता हूँ। अस्पृश्यताका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।....मेरी रायमें वर्ण-व्यवस्थाका आधार वैज्ञानिक