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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विद्यापीठको भी विद्यार्थियोंके लिए समाज-सेवाका कार्य करनेकी दृष्टिसे ऐसे क्षेत्र चुनने होंगे जो उन्हें सेवाके साथ आजीविका प्राप्त करनेके साधन भी दे सकें। आजीविका, विद्याका लक्ष्य न हो लेकिन उससे आजीविका प्राप्त करनेकी सामर्थ्य तो मिलनी ही चाहिए। विद्याका लक्ष्य है आत्मविकास। जहाँ आत्मविकास हुआ वहाँ आजीविका तो हस्तगत हो ही गई।

यह भी देखा गया है कि अंग्रेजी जाने बिना विद्यार्थियोंको तृप्ति नहीं होती। वे साहित्यके ज्ञानकी भी अपेक्षा रखते हैं। इसमें नुकसान कुछ नहीं है। हमें सिर्फ यही देखना है कि वे इसके अन्ध-पुजारी न बनें, वही एकमात्र ध्येय न बन जाये, वह एक प्रकारका बद्धिविलास न बन जाये। अपने उचित स्थानपर वह अवश्य ही एक सुन्दर वस्तु है और उसके लिए स्थान भी निःसन्देह है।

यह नहीं कहा जा सकता कि सरकारी विद्यापीठोंका पाठयक्रम केवल हानिकारक ही है। मुझे कभी ऐसा आभास नहीं हआ कि उनकी सब बातें त्याज्य हैं। उसकी तोतारटंत, मातृभाषाका अनादर, अंग्रेजीका आडम्बर, इतिहासका ज्ञान, प्राचीन संस्कृतिकी अवहेलना, संयमका अभाव--यह और ऐसी सब बातें अवश्य ही त्याज्य हैं।

यही सबब है कि मैं यह मानता हूँ कि विद्यापीठके पाठ्यक्रममें सुधारकी बहुतकुछ गुंजाइश है। लेकिन ऐसा कहना आसान है। यह सुधार लागू कौन करे? अनुभव तो किसीको भी नहीं है। जिन लोगोंके हाथमें पाठ्यक्रमके सूत्र हैं वे सब सरकारी विद्यालयोंकी छापवाले हैं। उनमें से किसी-किसीके मनमें इन विद्यालयोंके प्रति विरक्ति हुई है, किन्तु नया ज्ञान और नया अनुभव वे लावें कहाँसे? इसलिए राष्ट्रीय पाठ्यक्रममें त्रुटियाँ दिखाई देती हैं। आचार्योने प्रत्येक स्थलमें उचित रद्दोबदल करनेका यथाशक्ति प्रयास किया है और उसे घटाने-बढ़ानेमें वे सफल भी हुए हैं।

अब डा० सुमन्त मेहताकी योजनाके बारेमें दो शब्द कहता हूँ। मैं मानता हूँ कि उनको योजनाके अनुसार कार्यक्रम बनाया जाना चाहिए। उसमें कितने ही विषय ऐसे हैं कि जो महाविद्यालयके पाठ्यक्रमके प्रारम्भिक कालमें ही पढ़ाये जा सकते हैं। कितने तो उसके भी पहले सिखाये जा सकते हैं और कुछ सामान्य अध्ययन पूरा होनेपर सिखाये जानेके लायक मालूम होते हैं। मैं डा० सुमन्त मेहताको अपनी योजना तैयार करनेका निमन्त्रण देता हूँ। इतना तो मैं उन्हींको पत्र लिखकर कर सकता था। लेकिन इस विषयपर यहाँ चर्चा करनेका कारण तो यह है कि उसपर शिक्षक और शिक्षित लोग विचार करें, उसकी चर्चा करें और डा० सुमन्त मेहताकी मदद करें। हम लोगोंके पास विचारक बहुत कम हैं और जो हैं वे अपने-अपने क्षेत्रमें बंधे पड़े हैं। दिन-प्रतिदिन यह स्थिति दृढ़ होती जा रही है और उसमें कोई हानि भी नहीं है। यदि हर आदमी प्रत्येक विषयमें टाँग अड़ाने लगे तो वह न अपने साथ और न उन विषयोंके साथ, अच्छी तरह न्याय कर सकता है। क्षेत्र चुनकर उसकी साधना किये बिना हम लोग इष्ट फल नहीं प्राप्त कर सकते। इसलिए योजनाको सफल बनानेका भार तो डा० साहबको ही उठाना होगा। विचारशील शिक्षक और विद्या-प्रिय समाज-सेवक उन्हें मदद करेंगे। मेरा कार्य तो इन दोनोंको पास लाना और साथ ही