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कोहाटके हिन्दू

कुछ अपना अभिप्राय जाहिर करना था। डाक्टर साहब स्वयं एक वर्षका क्षेत्र-संन्यास लेकर पेटलादमें बैठ गये हैं। वहाँ उन्हें अपनी योजनाका प्रयोग करनेका अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है। इससे उन्हें अपनी योजनाका विकास करनेमें कुछ आसानी होगी।

योजना परिपक्व हो जानेपर उसके अनुसार कार्य करनेवाले शिक्षकोंकी जरूरत होगी। किन्तु यह एक दूसरा सवाल है और मेरा विश्वास है कि प्रसंग आनेपर वे भी मिल जायेंगे।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ८-२-१९२५

४४. कोहाटके हिन्दू

[९ फरवरी, १९२५] [१]

मैं जानता हूँ कि पाठक इस सप्ताहके 'यंग इंडिया' के पन्नोंमें, कोहाटकी पिछले सितम्बरकी शोकमय घटनाके विषयमें मौ० शौकत अलीके और मेरे निर्णयोंको खोजेंगे। पर खेद है कि उन्हें निराश होना पड़ेगा। क्योंकि मौ० शौकत अली मेरे साथ नहीं हैं और उन्हें दिखाये बिना इस विषयमें कोई बात प्रकाशित करना कदापि उचित न होगा। फिर भी मैं पाठकोंसे इतना तो कहे देता हूँ कि मैंने जो राय कायम की हैं उनपर पं० मोतीलालजी, पं० मालवीयजी और हकीम अजमलखाँ सा०, डा० अन्सारी और अली भाइयोंसे भी चर्चा कर ली गई है। साबरमती आते हुए रास्तेमें मैंने अपने विचारोंको अभी लिखकर खतम किया है। तुरन्त ही वे मौ० शौकत अलीको भेजी जायेंगी और उन्हें मौ० शौकत अलीकी पुष्टि अथवा संशोधनके साथ प्रकाशित करनेकी आशा रखता हूँ। परन्तु हमारे निर्णयोंको छोड़कर, मैं हिन्दुओंको फिर यही सलाह देता हूँ कि यदि मैं उनकी जगह होता तो जबतक सरकारके दखल दिये बिना मुसलमानोंसे इज्जतके साथ सुलह न हो जाती, मैं वहाँ न लौटता। यह इस मौकेपर मुमकिन नहीं है; क्योंकि बदकिस्मतीसे मुस्लिम कमेटीके लोग, जो कि कोहाटके मुसलमानोंकी रहनुमाई कर रहे हैं, न तो हमसे मिलने आये और न उन्होंने इसे जरूरी समझा। मैं देखता हूँ कि हिन्दुओंकी हालत नाजुक है। वे अपनी मिल्कियतको गँवाना नहीं चाहते। मौलाना साहब

और मैं दोनों ही सुलह कराने में कामयाब न हुए। हम तो कोहाटके खास-खास मुसलमानोंको बातचीतके लिए भी बुलानेमें समर्थ न हो सके। और न मैं यही कह सकता हूँ कि आगे भी हो सकेंगे। ऐसी हालतमें हिन्दू लोग जो मुनासिब समझें करें। हमारे नाकामयाब होते हुए भी मैं तो उन्हें सिर्फ एक ही रास्ता बता सकता हूँ----जबतक मुसलमान आपको इज्जत और गौरवके साथ ले न जायें, कोहाट न लौटें; पर मैं जानता हूँ कि यह सलाह, सिवा उन लोगोंके जो अपने पैरोंपर खड़े रह सकते हैं और जिन्हें किसीकी सलाहकी जरूरत नहीं है, औरोंके लिए कष्ट निवारण करनेकी

 
  1. यह लेख गांधीजीने ९ फरवरीको सावरमती लौटते समय लिखा था।