काट देते हैं कि वे जब बढ़ जाते हैं तब उनमें मैल भर जाता है और उससे हानि पहुँचती है। इसलिए उन्हें हम काट देते हैं। इसी प्रकार हमें शरीरके उन तत्त्वोंको भी, जो हानिकारक हो जाते हैं एक-एक करके दूर करते रहना चाहिए।
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ७
५५. पत्र: माणिकलाल अमृतलाल गांधीको
गाड़ीमें
मंगलवार [१० फरवरी, १९२५][१]
तुम्हारा पत्र मिला। तुमने बाबूके सम्बन्धमें जो लिखा वह मैं समझ गया। तुमने उसे भेज दिया, यह ठीक किया। यदि उसे अनुकूल पड़े और वह रह सके तो अच्छा ही है।
प्रभुदासका स्वास्थ्य तो वहाँके जलवायुसे बहुत सुधरा है। यदि मणिका स्वास्थ्य भी ऐसे ही सुधरे तो कैसा अच्छा हो? किन्तु वह चिन्ता बहुत करती है। और चिन्ता तो मनुष्यको मार ही देती है।
बापूके आशीर्वाद
आशा है मैं पोरबन्दर १९ तारीखको पहुँचूँगा। यदि महामारीका जोर बढ़ जाये तो क्या किया जा सकता है। इस बातपर तो देवचन्दभाई अवश्य ही विचार कर रहे होंगे।
राणावाव
काठियावाड़
मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ८९०) से।
सौजन्य: माणिकलाल अ० गांधी
- ↑ डाककी मुहरसे।