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भाषण: बोरसदमें

करता है, वैसा भरता है। हमारी दासताके लिए अंग्रेज दोषी नहीं हैं। हमारी ही अस्पृश्यताके पापरूपी बीजमें से दासताका वृक्ष उगा है।

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ७

५८. भाषण: बोरसदमें

११ फरवरी, १९२५

बोरसद सत्याग्रह संघर्षके कारण तीर्थस्थान ही बन गया है। किन्तु जैसे हिन्दुस्तानके तीर्थ स्थान अब तीर्थ क्षेत्र नहीं रह गये हैं, कहीं वैसी ही हालत बोरसदकी भी तो नहीं हो गई? आप लोगोंने वहाँ संघर्ष करके जो विजय प्राप्त की, वह कोई मामूली बात नहीं थी। किन्तु संघर्ष करना एक बात है और उसे समेट कर उसके बाद रचनात्मक कार्य करना दूसरी बात है। संघर्षका अच्छा परिणाम निकालना अति कठिन हो जाता है, बहुधा ऐसा प्रतीत होता है कि संघर्ष व्यर्थ ही किया। जैसे लम्बा उपवास करनेके बाद----उसकी ठीक समाप्ति कठिन हो जाती है, वैसे ही लड़ाई करनेके बाद उसका ठीक अन्त करना भी कठिन हो जाता है। यह बात हमने खेड़ाके सत्याग्रहके बाद भी देखी और इस लड़ाईके बाद भी यही दिखाई दे रहा है। बहुत बड़े क्षेत्रमें, यूरोपमें भी यही देखा गया था। वहाँ इंग्लैंड और जर्मनीके बीच बहुत बड़ा युद्ध हुआ था। इसमें बहुत बड़ा बलिदान किया गया और हमने यह आशा प्रकट की थी कि इसके फलस्वरूप यूरोपकी स्थिति बदल जायेगी। इसके परिणामस्वरूप यूरोपके लोग अधिक नीतिमान, पवित्र, सावधान और ईश्वरसे डरनेवाले बन जायेंगे। किन्तु वहाँ जो ढोंग पहले चलता था वह आज भी चलता है और जिन लोगोंने बलिदान किया था उनकी स्थिति दयनीय है। हमें आशा करनी चाहिए कि इस लड़ाई और उस लड़ाईमें जो अन्तर है, वह अन्तर उनके परिणामोमें भी होगा। वह लड़ाई विनाशकारी थी। सत्याग्रहकी लड़ाईमें एक भी पक्षका नाश नहीं होता, दोनोंका भला ही होता है। फिर भी सत्याग्रह-जैसी शुद्ध लड़ाईमें अन्तमें जो परिणाम देखना चाहते हैं वह क्यों नहीं निकलता? इसका कारण यही है कि आवेश दोनों ही प्रकारकी लड़ाईमें पाया जाता है। हमें जितनी शान्ति और धीरता दिखानी चाहिए उतनी हम नहीं दिखा पाते, इसलिए ऐसा लगता है मानो हमारे सब करे-धरेपर पानी फिर गया हो। किन्तु यहाँ तो मुझे दरबार साहबने [१] पहले ही चेतावनी दे दी थी कि वे हमें खादी-नगर बनाकर नहीं दिखा सकेंगे, क्योंकि लोग इस लड़ाईके बावजूद खादीके महत्त्वको पूरी तरह नहीं समझे हैं। इसलिए मैं यहाँ कोई बड़ी आशा लेकर नहीं आया हूँ और इसी कारण मुझे बहुत अधिक असन्तोष भी नहीं होता।

 
  1. दरबार साहब गोपालदास।