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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चाहता हूँ कि आप अन्त्यजोंको छूनेमें परहेज न करें। अन्त्यज मनुष्य हैं। मैं चाहता हूँ कि उनकी सेवा हो; क्योंकि वे सेवाके लायक हैं। जैसी सेवा माता बालककी करती है वैसी ही वे समाजकी सेवा करते हैं। उनको अछूत मानना, उनका तिरस्कार करना मानो अपना मनुष्यत्व गँवाना है। हिन्दुस्तान आज संसारमें अछूत बन गया है। इसका कारण यह है कि उसने अनेक कोटि अर्थात् असंख्य लोगोंको अस्पृश्य मान रखा है। और इसका फल यह हुआ है कि हमारे साथ रहनेवाले मुसलमान भी दुनियामें अस्पृश्य माने जाने लगे हैं। यह उलटा परिणाम क्यों हुआ? इसका एक ही जवाब है। 'जैसा करोगे वैसा पाओगे' यह ईश्वरका न्याय है। संसारके द्वारा ईश्वर हमें इस न्यायकी शिक्षा दे रहा है। इसे समझना कठिन नहीं है; यह तो सीधा-सा न्याय है। "ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्" भगवान् कृष्णने कहा है कि तुम जिस तरह मुझे भजोगे उसी तरह मैं तुम्हें भजूँगा। इसलिए मैं आपसे जो-कुछ चाहता हूँ यदि आप उसे समझ लेंगे तो आपको कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा। मैं आपको कष्ट नहीं पहुँचाना चाहता। मैं आपसे जरूरतसे ज्यादा आशा नहीं करता। मैं यह भी नहीं चाहता कि आप अन्त्यजोंके साथ रोटी-बेटीका व्यवहार करें। यह तो आपकी इच्छाकी बात है। परन्तु अन्त्यजको अस्पृश्य मानना इच्छाका विषय नहीं है। जिसका स्पर्श करना चाहिए, उसे अस्पृश्य मानना और जो अस्पृश्य हैं, उनका स्पर्श करना, इच्छाका विषय नहीं है। यदि आप अन्त्यज भाइयोंके दुःखोंको महसूस न कर सकें, तो फिर आप 'सवं खल्विदं ब्रह्म' किस तरह कह सकते हैं? उपनिषदोंके रचयिताओंमें पाखण्डी कोई भी न था। उन्होंने जगतको ब्रह्ममय कहा है। अतएव हम यदि अन्त्यजके दुःखसे दुःखी न होंगे तो हम अपनेको जानवरसे भी बदतर साबित करेंगे। हमारा धर्म पुकार-पुकार कर कह रहा है कि जो जीव पशुमें है वही हम सब लोगोंमें भी है। किन्तु हमने तो उस धर्मका गला ही घोंट दिया है। अखा भगतने अस्पृश्य भावनाको धर्मका अधिकांग कहा है। मैं तो दयाभावसे, प्रेमभावसे, भ्रातृभावसे इस अधिकांगको शल्यक्रिया करनेको कहता हूँ। यदि ऐसा करेंगे तो हिन्दू धर्मकी शोभा बढ़ जायेगी। इसमें हिन्दू धर्मकी रक्षा भी आ जाती है। हेतु यह नहीं है कि अन्त्यजोंका मुसलमान या ईसाई बनना रुकेगा। किसी भी धर्मका आधार उसके अनुयायियोंकी संख्यापर अवलम्बित नहीं रहता। संख्याको धर्म-बलका आधार माननेसे बढ़कर भ्रान्त कोई भी धारणा नहीं है। यदि एक भी व्यक्ति सच्चा हिन्दू रहे तो हिन्दू धर्मका नाश नहीं हो सकता; और यदि पाखण्डी हिन्दू करोड़ों भी हों तो उनसे हिन्दू धर्मकी रक्षा नहीं होती; ऐसी अवस्थामें तो उसका विनाश ही निश्चित समझिए। मैंने जो यह कहा कि हिन्दू धर्म सुरक्षित रहेगा, उसका भाव यह है कि जब हम प्रायश्चित्त कर चुकेंगे, अनेक युगोंका ऋण अदा कर देंगे, तभी हमें इस दारिद्रयसे छुटकारा मिलेगा।

अस्पृश्यतामें घृणाभाव स्पष्ट है। कोई यदि कहे कि अस्पृश्य भावना रहते हुए भी मैं अछूतोंसे प्रेम करता हूँ, तो मैं इस बातको कभी नहीं मान सकता। मुझे तो इसमें प्रेमभाव कहीं प्रतीत नहीं होता। यदि प्रेम हो तो हम उन्हें न तो दुरदुरा सकते हैं और न जूठन ही खिला सकते हैं। प्रेम हो तो हम उसी तरह उन्हें पूजेंगे