पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३१
भाषण: भादरनमें

जिस तरह माता-पिताको पूजते हैं। प्रेम हो तो हम उनके लिए अपनेसे भी अच्छे कुएँ, अच्छे मदरसे बनवा देंगे, उन्हें मंदिरोंमें आने देंगे। ये सब प्रेमके चिह्न हैं। प्रेम अगणित सर्योसे मिल कर बना है। जब एक सूर्यका प्रकाश ही फैले बिना नहीं रहता तब भला प्रेम क्यों कर छिपा रह सकता है? किसी माताको कहीं यह कहना पड़ता है कि मैं अपने बच्चेको चाहती हूँ? जिस बच्चेको बोलना नहीं आता वह माताको आँखके सामने देखता है और जब आँख मिल जाती है तब हम देखते हैं कि वे अलौकिक भावसे आप्लावित हैं।

मेरे कहनेसे कोई यह भी न मान बैठे कि दक्षिण आफ्रिकासे आया हुआ नई रोशनीवाला यह हिन्दू अपने विचार हिन्दू धर्ममें प्रविष्ट कर देना चाहता है। मैं कह सकता हूँ कि सुधार करनेकी मुझे अभिलाषा नहीं है। मैं तो स्वार्थी आदमी हूँ और खुद अपने ही मनमें मगन रहता हूँ। मैं तो अपनी आत्माका कल्याण करना चाहता हूँ। इसलिए मैं तटस्थ और निश्चिन्त बना बैठा हूँ। पर मैं चाहता हूँ कि जिस आनन्दका अनुभव मैं कर रहा हूँ उसका उपभोग आप भी करें। इसीलिए मैं आपसे कहता हूँ कि अन्त्यजोंका स्पर्श करके, उनकी सेवा करके जो आनन्द प्राप्त होता है आप उसका उपभोग कीजिए।

वर और वधूको हम तो माला ही अर्पित कर सकते हैं। यदि वे प्रेमके बन्धनमें बँध जायें तो फिर हमें और चाहिए ही क्या? यदि वे परस्पर जीवनसंगी बन जायें तो शेष क्या रह जाता है? अगर इससे अधिककी इच्छा किसीको हो तो फिर उसे विवाह करनेका अधिकार नहीं है। विवाहको अनिवार्य माननेको बेढंगी प्रथाके अन्तर्गत कोई विवाह न करे, मैं तो यही चाहता हूँ। ऐसे कठिन संयोगमें पड़ी हुई कन्या यदि आजीवन कौमार्यका पालनकरे, तपश्चर्या करे, और उमाकी तरह व्रत लेकर बैठ जाये कि शिवके अतिरिक्त किसीसे विवाह नहीं करूँगी तो उसे इस जीवनमें नहीं तो अगले जीवनमें शिव अवश्य मिलेंगे। ऐसी बालिका सारी जातिका मुख उज्ज्वल करेगी। मैं चाहता हूँ कि सब लोग यह बात समझ जायें कि विवाह भोगका साधन नहीं है; संयमका साधन है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १५-२-१९२५