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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

दें। सम्भव है इसमें उन्हें कोई तड़क-भड़क दिखाई न दे। लेकिन इस कारण तो उसमें और भी अधिक धैर्य और शौर्यके साथ खामोशीसे निरन्तर उद्योग करनेकी आवश्यकता है, और आवश्यकता है उस आत्मोत्सर्गको जो बड़ेसे-बड़ा क्रान्तिकारी ही कर सकता है। अधीर होनेसे क्रान्तिकारियोंको दृष्टि धूमिल हो जायेगी और वे भटक जायेंगे। झूठे गौरवमें आकर फाँसीके तख्तेपर झूल जानेकी अपेक्षा जनसमुदायके बीच स्वेच्छापूर्वक और यशकी आशाको त्यागकर नित्य आधापेट खाकर सेवा करते हुए शरीरको गलाना निस्सन्देह अधिक वीरताका काम है।

आलोचना-मात्र असहिष्णुता नहीं है। चूँकि मुझे क्रान्तिकारियोंसे प्रेम और सहानुभति है, इसलिए मैंने उनकी आलोचना की है। मुझे गलत माननेका उन्हें उतना ही अधिकार है, जितना मुझे उनकी गलती माननेका है।

'खुली चिट्ठी' में दूसरे मुद्दे भी हैं। लेकिन मैंने उनका उल्लेख नहीं किया है। मेरा खयाल है कि उनका उत्तर पाठक आसानीसे दे सकते हैं और इनका सम्बन्ध किसी महत्त्वपूर्ण विषयसे तो कदापि नहीं है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १२-२-१९२५

६३. भाषण: भादरनमें ब्रह्मचर्यपर [१]

१२ फरवरी, १९२५

आप चाहते हैं कि ब्रह्मचर्यके विषयपर मैं कुछ कहूँ। कितने ही विषय ऐसे हैं, जिनपर मैं 'नवजीवन' में प्रसंगोपात्त लिखता हूँ। ब्रह्मचर्य भी एक ऐसा ही विषय है। इसपर भाषण तो मैं शायद ही कभी देता हूँ, क्योंकि यह एक ऐसा विषय है जिसे बोलकर नहीं समझाया जा सकता। फिर मैं यह भी जानता हूँ कि यह एक बड़ी गहन वस्तु है। आप तो सामान्य ब्रह्मचर्यके विषयमें सुनना चाहते हैं, जिस ब्रह्मचर्यकी विस्तृत व्याख्या समस्त इन्द्रियोंका संयम है, उसके विषयमें नहीं। साधारण ब्रह्मचर्यको भी शास्त्रकारोंने बड़ी कठिन वस्तु बताया है। यह बात ९९ फीसदी सच है; इसमें १ फीसदीकी कसर है। इसका पालन इसलिए कठिन मालूम होता है कि हम दूसरी इन्द्रियोंको संयममें नहीं रखते। इनमें मुख्य है रसनेन्द्रिय। जो अपनी जिह्वाको कब्जेमें रख सकता है उसके लिए ब्रह्मचर्य सुगम हो जाता है। प्राणिशास्त्रके ज्ञाताओंका कथन है कि पशु जिस दरजे तक ब्रह्मचर्यका पालन करता है, उस दरजे तक मनुष्य नहीं करता। यह सच है। इसका कारण देखनेपर मालूम होगा कि पशु अपनी जिह्वेन्द्रियपर पूरा-पूरा निग्रह रखते हैं-- इच्छापूर्वक नहीं, स्वभावसे ही। वे केवल घासचारे आदि पर अपनी गुजर करते हैं--और महज पेट भरने लायक ही खाते हैं। वे जीनेके लिए खाते हैं, खानेके लिए जीते नहीं है। पर हम तो इसके बिलकुल विपरीत करते हैं। माँ बच्चेको तरह-तरहके सुस्वादु भोजन कराती है। वह

 
  1. सेवामण्डल द्वारा किये गये अभिनन्दनके उत्तर में।