पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३७
भाषण: भादरनमें ब्रह्मचर्यपर

मानती है कि बालकके साथ प्रेम दिखानेका यही सर्वोत्तम रास्ता है। ऐसा करके हम उन चीजोंमें स्वाद बढ़ाते नहीं बल्कि कम कर देते हैं। स्वाद तो रहता है भूखमें। भूखके वक्त सूखी रोटी भी सुस्वादु लगती है और बिना भूखके लड्डू भी स्वादरहित मालूम होंगे। पर हम तो अनेक चीजोंको खा-खाकर पेटको ठसाठस भरते हैं और फिर कहते हैं कि ब्रह्मचर्यका पालन नहीं हो पाता। जो आँखें ईश्वरने हमे देखनेके लिए दी हैं उनको हम मलिन करते रहते हैं। देखनेकी वस्तुओंको देखना नहीं सीखते। 'माता गायत्री क्यों न पढ़े और वह बालकको गायत्री क्यों न सिखाये', इसकी छानबीन करनेकी अपेक्षा उसके तत्त्वको समझकर सूर्योपासना कराये तो कितना अच्छा हो। सूर्यकी उपासना तो सनातनी और आर्य-समाजी दोनों कर सकते हैं। यह तो मैंने स्थूल अर्थ आपके सामने उपस्थित किया। इस उपासनाके मानी क्या हैं? अपना सिर ऊँचा रखकर, सूर्यनारायणके दर्शन करके, दृष्टिको शुद्ध करना। गायत्रीके रचयिता ऋषि थे, दृष्टा थे। उन्होंने कहा कि सूर्योदयमें जो नाटक है, जो सौन्दर्य है, जो लीला है, वह और कहीं दिखाई नहीं दे सकती। ईश्वरके जैसा सुन्दर सूत्रधार अन्यत्र नहीं मिल सकता और आकाशसे बढ़कर भव्य रंगभूमि कहीं नहीं मिल सकती। पर कौन माता आज बालककी आँखे धोकर उसे आकाश दर्शन कराती है? किन्तु माताके मनमें तो अनेक विचार उठते रहते हैं। बड़े-बड़े घरोंमें जो शिक्षा मिलती है उसके फलस्वरूप लड़का शायद बड़ा अधिकारी हो जायेगा, पर इस बातका कौन विचार करता है कि घरमें जाने-अनजाने जो शिक्षा बच्चोंको मिलती है, उससे वह कितनी बातें ग्रहण कर लेता है। माँ-बाप हमारे शरीरको ढकते हैं, सजाते हैं, पर इससे कहीं शोभा बढ़ सकती है? कपड़ बदनको ढकनेके लिए हैं, सर्दी-गर्मीसे रक्षा करनेके लिए हैं, सजानेके लिए नहीं। जाड़ेसे ठिठुरते हुए लड़केको जब हम अँगीठीके पास ढकेलेंगे, अथवा मुहल्लेमें खेलने-कूदन भेज देगें, अथवा खेतमें कामपर छोड़ देंगे, तभी उसका शरीर वज्रकी तरह होगा। जिसने ब्रह्मचर्यका पालन किया है, उसका शरीर व्रजकी तरह जरूर होना चाहिए। हम बच्चोंको चौबीसों घंटे घरमें रखकर उन्हें ठंड आदिसे बचाये रखना चाहते हैं। इससे तो उनकी त्वचामें कृत्रिम ऊष्मा आ जाती है और उन्हें चर्म रोग हो जाते हैं। हमने शरीरको दुलराकर उसे बिगाड़ डाला है। यह तो आगसे खेलना है।

यह तो हुई कपड़ेकी बात। फिर घरमें तरह-तरहको बातें करके हम बच्चे के मनपर बुरा प्रभाव डालते हैं। उसकी शादीको बातें किया करते हैं और इसी किस्मकी चीजें और दृश्य भी उसे दिखाये जाते हैं। मुझे तो आश्चर्य होता है कि इस सबके बाद हम पूरे जंगली ही क्यों नहीं हो गये? मर्यादा तोड़नेके अनेक साधनोंके होते हुए भी मर्यादाकी रक्षा होती रहती है। ईश्वरने मनुष्यको रचना इस तरहसे की है कि पतनके अनेक अवसर आते हुए भी वह बच जाता है। ऐसी उसकी अलौकिक लीला है। यदि हम ब्रह्मचर्यके रास्तेसे ये सारे विघ्न हटा दें तो उसका पालन बहुत आसान हो जाये।

ऐसी हालतमें भी हम शारीरिक शक्तिमें दुनियाके मुकाबिले खड़े होना चाहते हैं। इसके दो रास्ते हैं। एक आसुरी और दूसरा दैवी। आसुरी मार्ग है--शरीरबल