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६७. विद्यार्थियोंके बारेमें


एक भाई लिखते हैं:[१]

गुजरात महाविद्यालयके और आपके दूसरे भाषणोंको पढ़नेपर भी जो बात सच है उसका खयाल दूर नहीं होता...यह तो आप मानते है कि आजीविका विद्याका फल होना चाहिए लेकिन आज तो उसमें भी बड़ी मुश्किलें हैं।...असहयोग मुल्तवी होनेपर अन्य लोग अपना मूल धन्धा फिरसे शुरू कर सकते हैं, लेकिन विद्यार्थी इच्छा होनेपर भी ऐसा नहीं कर सकते।...

असहयोग करनेसे, उन वकीलोंकी जिन्हें पहले मुकदमे नहीं मिलते थे, प्रसिद्धि हो जाने के कारण अब अच्छी कमाई हो रही है।

आप १५ तारीखको राजकोट पधारेंगे। क्या आप देशी राज्योंको यह सलाह नहीं दे सकते कि विद्यापीठके स्नातकोंको भी वे अपने यहाँ रखें?

विद्यार्थियोंके त्यागका उल्लेख तो मैंने अनेक बार किया है। यह नियम है, और इसका कुछ अपवाद भी नहीं है कि जो स्वयं अपने त्यागका उल्लेख करता है उसके त्यागका उल्लेख दुनिया नहीं करती। जिस त्यागका उल्लेख त्याग करनेवालेको करना पड़ता है, वह त्याग नहीं है। आत्मत्याग तो स्वयंप्रकाशी होता है। अपने कीमत आँकनेके बजाय, उन्होंने जो-कुछ पाया है उसीका मल्य विद्यार्थी क्यों न आँके?

जो यह नहीं जानता कि राष्ट्रीय शिक्षा प्राप्त करने में ही उसकी कीमत आ जाती है, वह कुछ भी नहीं जानता। राष्ट्रीय विद्यापीठके स्नातकको यह माननेकी कोई आवश्यकता नहीं कि उनका भाव घट गया है। इस प्रकार स्नातक अपना भाव क्यों घटाते हैं? मैं राष्ट्रीय विद्यापीठके स्नातकोंसे आत्मविश्वास रखनेकी आशा रखता हूँ। वे दीन, याचक न बनें, ईश्वरपर विश्वास रखें। स्नातक क्यों चाहते हैं कि मैं उनके लिए देशी राज्योंके आगे हाथ पसारूँ? स्नातक अपने ज्ञान और चरित्रबलपर ही बहुमूल्य क्यों न ठहरें? ऐसा समय आ सकता है जब राष्ट्रीय स्नातकोंकी ही माँग हो। ऐसा समय लाना स्नातकोंपर निर्भर है। काँचके ढेरमें पड़े हुए हीरेकी पहचान हुए बिना नहीं रहती। राष्ट्रीय स्नातकोंके बारेमें भी यही बात हो सकती है। मैं तो काठियावाड़में, अपने व्याख्यानोंमें स्नातकोंके बारेमें एक शब्द भी नहीं बोलना चाहता। मैं तो काठियावाड़में खादी और चरखके प्रचारके लालचसे जा रहा हूँ, राज्याधिकारियोंको खादी-प्रेमी बनाने जा रहा हूँ, नरेशोंसे यह विनय करनेके लिए जा रहा हूँ कि आप अपने धर्मपर ध्यान दें। यदि खादीकी और चरखेकी प्रतिष्ठा बढ़ी तो स्नातकोंकी भी प्रतिष्ठा बढ़ी समझिए। क्योंकि जो चरखा-शास्त्रको घोलकर पी नहीं

 
  1. अंशत: उद्धृत।