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टिप्पणियाँ

गया है वह राष्ट्रीय स्नातक नहीं है। जैसे अधिकारी वर्गको अंग्रेजी जाननेवाले कुशल मन्त्रीकी आवश्यकता होती थी, उसी प्रकार उन्हें कुशल चरखाशास्त्रीकी आवश्यकता हो, ऐसा ही वायुमण्डल पैदा करनेके लालचसे मैं काठियावाड़ जा रहा हूँ।

अब लेखककी दो तीन भूलें सुधारनेकी इजाजत चाहता है। असहयोगी विद्यार्थी दूसरोंकी तरह असहयोग मुल्तवी नहीं रख सकते, यह मानना गलत है। शर्म और दुःखकी बात तो यह है कि हजारों विद्यार्थी असहयोग करनेके बाद फिरसे सहयोगी बन गये हैं। और यह क्रम अब भी चल रहा है। कितने ही असहयोगी कहलानेवाले विद्यार्थियोंने राष्ट्रीय प्रमाणपत्र प्राप्त कर लेनेपर भी फिरसे सरकारी परीक्षाएँ दी हैं। इसके विपरीत अदालतोंने कितने ही वकीलोंकी सनदें छीन ली है और वे मजबूरन असह्योगी-जैसे बन गये हैं। और नौकरी छोड़ देनेवाले कितने ही सरकारी नौकरोंकी दशा बड़ी दीन कही जा सकती है। लेकिन उनमें से कितने ही लोग ऐसा नहीं मानते; वे तो उसमें शान और गौरवका अनुभव करते हैं। क्योंकि सरकारी नौकर रहनेपर वे पराधीन थे और अब नौकरी छूट जानेपर स्वाधीन है, स्वतन्त्र हैं और इसलिए अपनेको बड़भागी मानते हैं।

इसलिए जो विद्यार्थी हतोत्साह हो गये हैं, उन्हें मैं कहता हूँ कि उन्हें हतोत्साह होनेका कोई कारण नहीं है। इतना ही नहीं, इससे तो वे आगे ही बढ़ेंगे। हाँ, उसमें एक शर्त है। असहयोगी विद्यार्थीके बारेमें यह माना जाता है कि वह प्रामाणिक, निर्भय, संयमी, उद्यमी और देशसेवक होता है। ऐसे विद्यार्थीको कभी निराश होनेका कारण नहीं होता। उन्हींपर देशका उद्धार निर्भर है। स्वतन्त्रता देवीके स्वर्ण मन्दिरकी बुनियाद उन्हींपर होगी।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १५-२-१९२५

६८. टिप्पणियाँ

एक सुधार मैंने पिछले अंकमें लिखा है कि मैं राजकोटकी राष्ट्रीय शालाका उद्घाटन करूँगा। किन्तु अब यह शुभ काम माननीय ठाकुर साहबके हाथोंसे सम्पन्न होगा। व्यवस्थापकोंका खयाल पहले भी तो यही था। किन्तु यदि माननीय ठाकुर साहब उसका उद्घाटन न कर सकते तो मैं तो था ही। मुझे कोई निश्चित तार या समाचार नहीं मिला था, इसलिए मैंने यह मान लिया था कि यह विधि मुझको ही सम्पन्न करनी होगी। मैं तो दिल्लीको ओर प्रवासमें था और मैंने वहींसे यह टिप्पणी लिख कर भेजी थी। जब मैंने यहाँ आकर यह देखा कि उद्घाटनकी विधि तो माननीय ठाकुर साहब ही सम्पन्न करेंगे तो मुझे प्रसन्नता हुई। और यही व्यवस्था अभीष्ट भी है।