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भाषण: राष्ट्रीय शालाके उद्घाटनपर

है। किन्तु मेरे लिए, जिसने ऐसे प्रयोगोंमें ही अपना जीवन लगाया है, अन्य कुछ करना असम्भव है। इसलिए मैं ठाकुर साहबसे निवेदन करता हूँ कि वे मुझ-जैसे लोगोंपर अपनी कृपादृष्टि रखें। जिन लोगोंमें नया जीवन आ गया है और जो स्वतन्त्र और संयत होना चाहते हैं, यदि उन लोगोंके शिक्षकोंके नियम अत्यन्त कठोर न होंगे तो उन्हें सामान्य शालाओंके लिए मध्यम कोटिके शिक्षक प्राप्त करने में भी कठिनाई होगी।

मैं शिक्षकोंसे कहना चाहता हूँ कि वे कठिनाइयोंसे संघर्ष करें और मरण-पर्यन्त धर्मका पालन करें। चाहे छात्र १५० से ४० रह जायें, किन्तु वे इस शालाकी सेवा करते रहें। जैसे चुम्बक लोहेको खींचता है वैसे उनकी निष्ठा ही भविष्यमें शालामें दूसरे छात्रोंको आकर्षित करेगी। हम लोग आरम्भ-शूर कहे जाते हैं; किन्तु हमपर जैसे ही संकट आता है कि हम संकटमोचन भगवान्की स्तुति करनेके बजाय अहंकारपूर्वक काम छोड़कर बैठ जाते हैं। यदि हम जातियोंके इतिहासका अवलोकन करें तो देखेंगे कि जिन देशोंके लोग स्वतन्त्र हैं उनमें बहुतसे लोगोंने जीवनके सिद्धान्तोंका पालन मरण-पर्यन्त किया है। पाँच वर्ष नहीं, बीस वर्ष भी इस शालामें प्रगति होती न दिखे तो भी कोई चिन्ताकी बात नहीं है। किसी संस्थाके जीवनमें बीस वर्षका काल कुछ नहीं होता। चाहे हमें कोई स्पष्ट फल निकलता न दिखे, किन्तु यदि शिक्षकोंमें आत्मविश्वास है तो उन्हें अपने स्वीकार किये हुए सीधे मार्गपर ही चलते जाना चाहिए। अन्तमें उन्हें सुरम्य तट अवश्य दिखाई देगा।

मुझे इस शालाकी विशेषताके सम्बन्धमें दो शब्द कहनेकी आवश्यकता है। इसकी एक विशेषता तो यह है कि इसने अपने सम्मुख अनेक कठिनाइयाँ आनेपर भी अन्त्यज बालकोंको प्रविष्ट किया है। इसकी दूसरी विशेषता यह है कि इसमें शरीर-श्रमको प्रथम स्थान दिया गया है। इस शालाकी भूमिमें हमें जो पेड़-पौधे उगे दिखाई देते हैं, उनको उगाने में शिक्षकों और बालकोंने योग दिया है। यह शरीर श्रम यज्ञका रूप है, किन्तु इस देशमें और इस युगमें यज्ञका सर्वोत्तम रूप चरखा चलाना है। प्रत्येक स्त्री और पुरुषको अन्त्यजोंके नामपर, देशके असंख्य कंगालोंके नामपर और देशकी असंख्य विधवाओंके नामपर नित्य आधा घंटा चरखा चलाना चाहिए। अभिभावकोंको जानना चाहिए कि विद्यार्थियोंको अपनी बुद्धि ही नहीं, शरीरका भी विकास करना चाहिए। उनको स्वहित ही नहीं, परहित भी साधना चाहिए। चरखेमें परहित आ जाता है, इस बातको जो लोग समझते हैं वे तो चरखेका त्याग कदापि नहीं करेंगे। किन्तु मैंने तो यह सुना है कि माता-पिताको यह नहीं रुचता कि उनके बच्चे शरीर-श्रम करें, चरखेसे सूत कातें। सच्चे ज्ञानमें शरीर, आत्मा और बद्धिका विकास सम्मिलित है। इस त्रिवेणीकी साधना ही श्रेयस्कर है। ऐसा है कि इसमें स्वार्थ-त्यागी और परिश्रमी शिक्षकोंके मनमें निराशाके भाव आ जाते हैं। मेरा ठाकुर साहबसे निवेदन है कि वे ऐसे वातावरणमें रहनेवाले शिक्षकोंपर अपनी कृपादृष्टि रखें।

क्या शालाका कार्य नीति-विरुद्ध है? यदि वह नीति-विरुद्ध हो तो अलग बात है। यदि कोई अस्पृश्यताके प्रश्नको नीति-विरुद्ध मानते हों, अन्त्यजोंको छूना भ्रष्टाचार