साथ लड़ रहे हैं। वाइकोमका सत्याग्रह कष्ट-सहनके रूपमें एक दलील है। क्रोधरहित, द्वेषरहित, कष्टसहनके उदीयमान सूर्यके सामने कठोरसे-कठोर हृदय पिघले बिना नहीं रह सकता, घोरसे-घोर अज्ञान दूर हुए बिना नहीं रह सकता।
सत्याग्रह छावनी में शीतलाके प्रकोपकी बात सुनकर मैं डर गया हूँ। यह रोग गंदगीसे उत्पन्न होता है और तन्दुरुस्ती-सम्बन्धी मामूली उपायोंसे दूर हो सकता है। चेचकके रोगियोंको दूसरोंसे अलग रखकर उसके प्रकोपका कारण खोजना चाहिए। छावनीमें सफाई तो पूरी-पूरी रहती है न? डाक्टरोंके पास चेचककी कोई दवा नहीं होती। जल-चिकित्सा ही उसका उत्तम इलाज है। सूक्ष्म आहार अथवा अनाहार सबसे अच्छा रास्ता है। पर सबसे बढ़कर महत्त्वकी बात तो यह है कि रोगी अथवा दूसरे लोगोंमें से कोई भी हिम्मत न हारे। रोगियोंकी पीड़ा भी उनके कष्ट सहनकी विधिका एक अंग है। सैनिकोंकी छावनियाँ रोगसे बिल्कुल अछूती नहीं होतीं। कहा तो यहाँतक जाता है कि गोलियाँ खाकर मरनेवाले सैनिकोंकी अपेक्षा रोगसे मर जानेवाले सैनिक ही अधिक होते हैं।
सत्याग्रही रुपये-पैसेकी चिन्ता बिलकुल न करें। उनकी अखण्ड श्रद्धा उन्हें आवश्यक आर्थिक सहायता दिला देगी। मैंने अबतक एक भी सत्कार्य ऐसा नहीं देखा जो धनके अभावके कारण पूरा न किया जा सका हो।
७५. हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न
एक सज्जन लिखते हैं:
आपने 'यंग इंडिया' में एक पत्र द्वारा तालीमके क्षेत्रमें मुसलमानोंके बहुत पिछड़े हुए होनेकी शिकायतका पर्दाफाश करनेवाले एक पत्रको स्थान दिया है। अब मैं आपका ध्यान एक और ऐसी चीख-पुकारकी ओर आकर्षित करता हूँ जो तालीमवाली बातसे भी ज्यादा बेतुकी है और वह यह कि 'हिन्दुस्तानमें मुसलमान एक अल्पसंख्यक जाति है।' हमेशा यह बात कही जाती है और राजनीतिक मसलोंके पेश होनेपर यह दलील चुपचाप मान भी ली जाती है। पर क्या दरअसल वे अल्पसंख्यक हैं? अगर उनके सिर्फ एक ही फिरके, हनफी सुन्नियोंको ले लें तो क्या वे हिन्दुओंके किसी भी एक फिरकेसे संख्या अधिक नहीं हैं? बल्कि भारतके ईसाई, पारसी, सिख, जैन, यहूदी और बौद्ध किसी भी धर्मके लोगोंसे अधिक नहीं हैं? और फिर हिन्दू लोग कितनी ही ऐसी जातियों और फिरकोंमें बँटे हुए हैं जो कि सामाजिक बातोंमें परस्पर उतने ही दूर हैं,
१. यहाँ पत्रका सारांश दिया जा रहा है।