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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इधर हिन्दू भी मुसलमानोंसे डरते हैं। उनका कहना है कि जब कभी मुसलमानोंके हाथमें हुकूमत आई है, उन्होंने हिन्दुओंपर बड़ी-बड़ी ज्यादतियाँ की हैं और कहते है कि हालाँकि हमारी बहुसंख्या है तो भी मुट्टीभर मुसलमान हमले करके हमारे छक्के छुड़ा देते हैं। हिन्दुओंके मनमें हमेशा पुराने अनुभवोंके दोहराये जानेका खतरा रहता है, और वे अग्रगण्य मुसलमानोंकी नेकनीयतीके बावजूद यह मानते हैं कि मुसलमान जनता तो मुसलमान गुंडेका ही साथ देगी। इसलिए हिन्दू मुसलमानोंके कमजोर होनेके उज्रको नामंजूर करते हैं और लखनऊ समझौतेमें निहित सिद्धान्तको व्यापक करनेकी बातसे इनकार करते हैं। यहाँ भी यह सवाल नहीं उठता कि हिन्दुओंका यह डर कहाँतक ठीक है। उन्हें ऐसा डर है और हमें इसपर विचार करना होगा। किसी भी जाति या नेताकी नीयतपर शंका करना अनुचित होगा। मालवीयजी या मियाँ फजल-ए-हुसैनपर अविश्वास करना मानो इस प्रश्नके निपटारेको स्थगित करना है। दोनों अपने विचारोंको ईमानदारीके साथ पेश करते हैं। ऐसी हालतमें अक्लमंदी इसी बातमें है कि तमाम छोटे-बड़े सवालोंको एक ओर रख दें और जो स्थिति वास्तवमें है उसका मुकाबला करें, न कि अपने द्वारा कल्पित किसी स्थितिका।

इसलिए मेरी रायमें लेखकने, चाहे अनजानमें ही हो, अपने पक्षको जरूरतसे ज्यादा सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। उनका यह कहना सच है कि खुद हिन्दू परस्पर विरोधी दलोंमें विभक्त है। उनमें ऐसे दल हैं जो अपने लिए अलग-अलग ढंगके विशेष व्यवहारका दावा लेकर खड़े होते हैं। उनका यह कहना भी ठीक है कि पृथक प्रतिनिधित्वके लिए मुसलमानोंकी अपेक्षा अछूतोंका पक्ष कहीं अधिक मजबूत है। लेखकने मुसलमानोंके अल्पसंख्यक होनेकी हकीकतके विरोधमें आवाज नहीं उठाई है बल्कि जातिगत प्रतिनिधित्व और पृथक् निर्वाचनके विरोधमें उठाई है। उन्होंने यह दिखलाया है कि लखनऊके समझौतेके सिद्धान्तका विस्तार करनेसे असंख्य उपजातियों और दूसरी जातियोंके लिए जातिगत प्रतिनिधित्वका सवाल खड़ा हुए बिना न रहेगा। ऐसा करना स्वराज्यके शीघ्र आगमनको अनिश्चित कालतक स्थगित करना है।

लखनऊ समझौतेके सिद्धान्तको व्यापक बनाना या उसको कायम रखना भयावह है। किन्तु मुसलमानोंके दु:ख-दर्दोको देखा-अनदेखा कर देना भी क्या स्वराज्यको मुल्तवी करना नहीं है? इसलिए स्वराज्यका कोई भी प्रेमी तबतक दम नहीं ले सकता जबतक इस सवालका ऐसा निपटारा न हो जाये, जिससे मुसलमानोंकी आशंका दूर हो जाये और स्वराज्यके लिए भी कोई खतरा न रहे। ऐसा निपटारा असम्भव नहीं है।

एक विकल्प तो यह लीजिए।

मुसलमानोंकी यह माँग कि बंगाल और पंजाबमें उनका प्रतिनिधित्व उनकी संख्याके अनुसार रहे, मेरी रायमें अस्वीकार नहीं की जा सकती है। उनकी यह माँग

१. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग द्वारा १९१६ के लखनऊ अधिवेशनमें अपनाई गई संयुक्त सुधार योजना।