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हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न

उत्तर या उत्तर-पश्चिमके भयके आधारपर अमान्य नहीं की जा सकती। अगर हिन्दू स्वराज्य चाहते हैं तो उन्हें यह जोखिम उठाना ही चाहिए। यदि हम बाहरी दुनियासे डरते रहें तो हमें स्वराज्यका खयाल छोड़ देना चाहिए। पर चूँकि स्वराज्य तो हमें लेना ही है, इसलिए मैं मुसलमानोंके न्यायोचित दावोंका विचार करते समय हिन्दुओंके डरकी दलीलको खारिज करता है। अपनी भावी सुरक्षाको खतरे में डालकर भी हममें न्याय करनेका साहस होना चाहिए।

मुसलमानों द्वारा पृथक् निर्वाचनको माँगका कारण पृथक् निर्वाचन ही नहीं है बल्कि यह है कि वे विधान-सभाओंमें तथा दूसरे निर्वाचक मण्डलोंमें अपने सच्चे प्रतिनिधि ही भेजना चाहते हैं। यह तो कानूनके जरिये अनिवार्य करनेकी अपेक्षा आपसी तौरपर तजवीज कर लेनेसे अधिक अच्छी तरह हो जा सकता है। आपसी तौरपर की हुई तजवीजमें घटा-बढ़ीकी गुंजाइश रहती है। मगर विधान द्वारा थोपे हुए निर्णयोंमें उनके समयके साथ उत्तरोत्तर सख्त होते जानेकी सम्भावना होती है। आपसी तजवीजसे दोनों दलोंकी ईमानदारी और सदाशयताकी परीक्षा होती रहेगी। पर वैधानिक निर्णयमें इन दोनों बातोंकी गुंजाइश ही नहीं होती। आपसी तजवीजके मानी हैं, घरेलू झगड़ोंका घरेलू निपटारा और दोनोंकी दुश्मन अर्थात् विदेशी हुकूमतके विरोधमें सम्मिलित बलकी मजबूत दीवार। लोग कहते हैं कि मैं जो आपसी तजवीज सुझा रहा हूँ उसके मुताबिक काम करने में कानून बाधक है। यदि ऐसा हो तो हमें उस कानूनी बाधाको दूर करनेकी कोशिश करनी चाहिए, न कि नई बाधा पैदा करने या जोड़नेकी। इसलिए मेरा सुझाव है कि पृथक् निर्वाचनका खयाल छोड़ दिया जाये और क्षेत्र विशेषमें दोनोंकी संयुक्त सम्मतिसे तयशुदा तादादमें मुस्लिम तथा दूसरे उम्मीदवारोंके चुनावकी सूरत पैदा की जाये। मुस्लिम उम्मीदवार जानी-मानी मुस्लिम संस्थाओंके द्वारा नामजद किये जायें। इस मौकेपर नियत तादादसे अधिक तादादमें प्रतिनिधि रखनेके सवालपर चर्चा जरूरी नहीं है। जब आपसी ठहरावके सिद्धान्तको सभी लोग स्वीकार कर लेंगे तब प्रतिनिधित्वकी बातपर विचार किया जा सकेगा और उसी समय सम्बन्धित सभी दिक्कतें भी हल की जा सकती हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि मेरे इस प्रस्तावमें पहलेसे यह एक बात गृहीत कर ली गई है कि इस सवालमें लगे हुए तमाम लोग स्वराज्यको ध्यानमें रखकर इसे हल करनेकी कोशिश सच्चे और साफ दिलसे चाहते हैं। यदि उद्देश्य किसी सम्प्रदाय विशेषके हकमें सत्ता-प्राप्तिका हो तब तो कोई भी आपसी व्यवस्था टिकी नहीं रह सकती। किन्तु यदि स्वराज्य ही हम सबका लक्ष्य हो और दोनों पक्षोंके लोग केवल राष्ट्रीय दृष्टिकोणसे ही उसे हल करना चाहते हों तो फिर उसके भंग होनेका अन्देशा रहता ही नहीं है। इसके विपरीत हर फरीक नेकनीयतीके साथ उनके अनुसार चलने में अपना हित समझेगा।

कानूनका काम इतना ही है कि वह समुचित मतदानकी व्यवस्था कर दे, ताकि सम्प्रदाय यदि चाहें तो अपनी तादादके लिहाजसे मतदाताओंके नाम दर्ज करा सकें। मतदाताओंकी सूची ऐसी होनी चाहिए जिससे प्रतिनिधि संख्याके अनुपातमें चुने जा सकें। पर इसके लिए वर्तमान मताधिकारको कार्यरीतिकी गहरी छान-बीन करनी