पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/१९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उससे दुगुना या उससे भी अधिक आप मुझसे बदलेमें पा लेंगे; क्योंकि मेरे पास ऐसा एक भी पैसा नहीं आता जिसमें से रुपयोंके वृक्ष पैदा न होते हों--ब्याजसे नहीं, उसके उपयोगसे। ब्याज लेकर जीनेसे तो मरना ही बेहतर है। एक पैसेसे जितना भी रस लूटा जा सकता है उतना रस मैं लुटाऊँगा। उसका उपयोग हिन्दुस्तानकी पवित्रताकी रक्षा करने में, हिन्दुस्तानके वस्त्रहीन स्त्री-पुरुषोंका [शरीर] ढँकनेमें ही होगा। हिसाब एक-एक पाईका रहेगा। आजतक मुझे एक भी शख्स ऐसा नहीं मिला जिससे मैं यह कह सकूँ कि आपने मुझे बहुत दिया है। इसीलिए मेरे बोहरा मित्र तो मुझसे दूर भागते हैं। वर्ना उमर हाजी आमद झवेरी [१] तो आज यहाँ होने ही चाहिए थे। वे कहते हैं कि तुम जब मिलते हो, लूटनेकी ही बातें करते हो। इस प्रकार आजके कठिन कालमें मेरे साथ मित्रता रखना भी भयंकर है। आजके कठिन समय जो भाई हिन्दू होकर अपने रुपये भंगीके हाथसे[२] लुटवाना चाहते हों, जो भाई देशको स्वतन्त्रताके लिए अपनी तमाम शक्ति या अपना सब धन खर्च करनेके लिए तैयार हो, वही मुझसे मित्रता कर सकता है। राजकोटके ठाकुर साहबने मुझपर प्रेमकी वर्षा की थी। मैं उसमें डूब-सा गया था। लेकिन मैं काँप रहा था और अपने हृदयसे पूछ रहा था कि राजाकी मित्रता कबतक रख सकोगे? मेरे पिता जिस राज्यमें दीवान थे उस राजाके हाथसे अभिनन्दन-पत्र लेना मुझे अच्छा क्यों न मालूम हो? आज जो महाराजा साहब हैं उनके पितामहके राज्यमें मेरे पितामह दीवान थे, उनके भी पिताके राज्यमें मेरे पितामह दीवान थे। राजा साहबके पिता मेरे मित्र थे, मेरे मुवक्किल थे। मैंने उनका अन्न खाया है--इसलिए महाराजा साहबका निमन्त्रण मुझे पसन्द क्यों न हो? लेकिन सबकी मित्रता निबाहना मुश्किल है। मैं अंग्रेजोंकी मित्रता नहीं निबाह सका। मुझे तो इस संसारमें केवल एक ही की मित्रता निबाहना बहुत जरूरी मालूम होता है--और वह है ईश्वरकी मित्रता। ईश्वरका अर्थ है अपनी अन्तरात्मा। यदि मुझे उसका नाद सुनाई पड़े और मुझे लगे कि सारी दुनियाको मित्रता छोड़ देनी चाहिए तो मैं उसके लिए तैयार हूँ। आप लोगोंकी मित्रताका मैं भूखा हूँ। मैं आपके तमाम रुपये-पैसे ले जाऊँगा और फिर भी मुझे तृप्ति न होगी। आपसे तो मैं माँगता ही रहूँगा और जब आप मुझे देशनिकाला दे देंगे तो मैं ईश्वरकी शरण चला जाऊँगा। मैं जो रुका हूँ सो हिन्दुस्तानकी सेवाके लिए। जबतक हिन्दुस्तानमें दुःखका दावानल सुलग रहा है तबतक मैं कहीं भी नहीं जाना चाहता। दक्षिण आफ्रिका जा सकता हूँ; लेकिन आज तो मुझे वहाँ जाना भी पसन्द नहीं है क्योंकि यहाँकी अग्नि बुझानेपर ही वहाँकी अग्नि बुझ सकती है। मैं सब राजाओंसे प्रार्थना करता हूँ कि वे अग्नि-शमनके इस काममें मदद करें, और यदि इसमें मैं पोरबन्दरसे अधिकसे-अधिक आशा रखूँ तो इसमें गलती क्या है?

प्रजाकी तरफसे भी मैं ऐसी ही आशा रखे बैठा हूँ। मैं आप सबका सहयोग चाहता हूँ। शायद इसका परिणाम यह भी हो कि हम अंग्रेजोंसे भी सहयोग करने

  1. डर्बनके एक व्यापारी तथा फीनिक्स आश्रमके एक न्यासी; देखिए खण्ड ११, पृष्ठ ३१८।
  2. गांधीजी स्वयं अपनेको भंगी मानते थे।