८४. पत्र: घनश्यामदास बिड़लाको
बाँकानेर
माघ कृष्ण १३ [२१ फरवरी, १९२५][१]
आपसे मैंने मुसलमानोंके लीये कहा था। अलीगढ़में राष्ट्रीय मुस्लीम युनिवर्सिटी चलती है। उसकी आर्थिक स्थिति बहोत ही कठिन है। मैंने उन भाइयोंको कहा है मैं सहाय दिलानेका प्रयत्न करूंगा। वे लोग एक रकम इकट्ठी कर रहे हैं। मैंने कहा है कि उसमें रु० ५००००की सहाय मांगनेकी कोशीष मैं करूंगा। आप इस बातको सोचीये और आपका दिल यदि इस सहाय पूरी या कुछ भी देना चाहता है तो मुझे लीखिये। हिंदु-मुसलमीन प्रश्नका मैं खूब अभ्यास कर रहा हूं। मेरा विश्वास मेरे हि इलाजपर बड़ता जाता है। अगर मुसीबतें ज्यादा देखता हूं तो भी।
मैं आजकल काठीयावाड़में घूम रहा हुँ। आज मेरा प्रवास खतम होगा।
आपका,
मोहनदास गांधी
आश्रममें १२ से २६ तारीख तक रहुंगा। २८ तारीखको दिल्ली पहोंचुंगा।
मूल पत्र (सी० डब्ल्यू० ६१०५) से।
सौजन्य: घनश्यामदास बिड़ला
८५. भाषण : बढवान कैम्पकी सभामें
२१ फरवरी, १९२५
हमें आज शिवलालभाईकी[२] अनुपस्थिति साल रही है। यह तो आपने अभी सुना कि उन्होंने काठियावाड़ और देशकी कितनी सेवा की है। यह हिन्दुस्तानका दुर्भाग्य ही है कि इसमें से जो अच्छे लोग चले जाते हैं उनकी जगह दूसरे नये पैदा नहीं होते। जाना तो हरएकके नसीबमें ही है। जन्म और मरणका जोड़ा है और वे साथ-साथ चलते हैं। इनके सम्बन्धमें किसीको मोह या शोक नहीं करना चाहिए। फिर भी कोई मरता है तो दुःख होता है। मुझे ऐसा लगता है कि इस दुःखका