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८६. भाषण : बढवानकी सार्वजनिक सभामें

२१ फरवरी, १९२५

मैं अन्त्यज बाड़ेसे अभी हाल ही लौटा हूँ। मुझे वहाँ बैठने में बहुत सुख मिला क्योंकि मैं इस प्रकार अपने कर्त्तव्यका पालन कर रहा था। अब मैं यहाँ आपके बीच बैठा हूँ। इस सम्बन्धमें ईश्वर मुझसे अवश्य पूछेगा, क्या बढवानके लोगोंसे कोई नई बात कहने गया था? आपने उनका मुहल्ला अलग बनाकर उनका त्याग कर दिया है; इसलिए मुझे उनको बहुत-सी नई बातें कहनी और बतानी थीं। आज मुझे आपको कोई ऐसा चमत्कार करके नहीं दिखाना है कि आप स्तम्भित रह जायें। मैं तो यही अनुरोध करता हूँ कि आप अपने धर्मको समझें और उसका पालन करें। मेरा आपसे इतना ही कहना है कि आप जिस बातको धर्म मान रहे हैं, वह पाप है। आप इस सम्बन्धमें भली-भाँति विचार करें और यदि आपका हृदय और आपकी बुद्धि दोनों इस बातको स्वीकार करें तभी आप उसे मानें और अन्त्यजोंको अस्पृश्य समझना बन्द कर दें।

जब मैं [आफ्रिकासे] हिन्दुस्तानमें आया था तब पहले अहमदाबाद गया। मैंने उस शहरके लोगोंसे सलाह की। मैंने उनको अपने विचार बताये। वे मुझे एक वर्ष तक सहायता देंगे यह वचन लेनेके बाद मैंने वहाँ अपना आश्रम खोला।[१] अन्त्यजोंके सम्बन्धमें भी बात हुई। मैंने कहा, मैं तो किसी विधर्मीसे भी भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं करूँगा और अन्त्यजोंको तो अपने आश्रममें अवश्य लूँगा। उन्होंने कहा, 'आपको ऐसे अन्त्यज कहीं नहीं मिल सकेंगे।' मैं वहाँ गया और रहने लगा। मुझे बर्तन-भाँडे सब मिले, किन्तु रुपया बिलकुल नहीं मिला। किन्तु मैने आशा नहीं छोड़ी। एक महीना ही बीता था कि दूदाभाई [२] ठक्कर बापाकी [३] चिटठी लेकर आ गये। मैंने उनको स्थान दे दिया। स्थान देते ही अहमदाबादके भाइयोंने मेरे बहिष्कारका निश्चय कर लिया। मैं जिस कुएँसे पानी भरता था, उस कुएँसे पानी भरनेवाले लोगोंने मुझे बहिष्कृत कर दिया। मैंने उनसे कहा, आप चाहे जो करें, किन्तु मैं तो अहमदाबादसे नहीं जाऊँगा। यदि ईश्वर मुझे यहाँ रखना चाहेगा तो रखेगा। कुछ न होगा, तो मैं अन्त्यज बाड़े में जाकर रहूँगा। मैं तो अपनी मान-मर्यादा समझनेवाला मनुष्य हूँ। आप रोष करेंगे तो भी मैं उसे अपना अपमान कदापि न मानूँगा। पाँच दिन बाद कुएँसे पानी भरनेवाले लोगोंके हृदय पसीज गये और उन्होंने दूदाभाईको कुएँसे पानी भरनेकी अनुमति दे दी। किन्तु रुपया? जिस दिन रुपया बिलकुल खत्म हुआ, उसी

 
  1. देखिए. खण्ड १३ पृष्ठ ८८-९१।
  2. एक अन्त्यज शिक्षक जिसके आश्रममें प्रवेशपर बहुत शोर मचा था, देखिए आत्मकथा, भाग ५, अध्याय १०।
  3. अमृतलाल वि० ठक्कर।