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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चबानेके बराबर है। पुस्तकालयको बनानेके लिए चाँदीके औजार काम नहीं आते, लोहेके ही चाहिए और उसे बन्द करनेके लिए चाँदीका ताला काम नहीं दे सकता, लोहेका ही चाहिए। अर्थात् हमने इस क्रियाको करते हुए आरम्भ कृत्रिमतासे ही किया है। मैंने तो सिर्फ थोड़ी-सी मट्टी डालकर पत्थर रख दिया, इसे बाँधनेका सारा काम तो राज ही करेंगे और मन्दिरका उद्घाटन तो शिक्षकों द्वारा ही होगा। पुस्तकालयका अर्थ पुस्तकोंका घर या पुस्तकें नहीं हैं; और न उसका अर्थ उसमें केवल जाकर बैठ जानेवाले लोग ही हैं। यदि ऐसा होता तो किताब बेचनेवाले अनेक लोग चरित्रवान् होते। बाल-मन्दिरकी इमारत खूबसूरत है और पैसा भी इसपर काफी खर्च किया गया है, पर क्या इसी कारण यह चल गया? इसका उत्कर्ष तो उसके संचालकोंके सुयोग्य होने और उसमें आत्मा होनेपर ही निर्भर करेगा। साधारण तौरपर ऐसी संस्थाओंका उद्घाटन करनेका कार्य मुझे ठीक नहीं मालूम होता; क्योंकि इन्हें खोलकर मैं क्या करूँगा? पर इस संस्थाका उद्घाटन करना मैंने कुबूल किया, उसका कारण यह है कि इसमें काम करनेवाले लोगोंपर मुझे विश्वास है। बाकी आप ऐसा न समझें कि मेरे हाथों उद्घाटन हुआ है इसलिए कुछ लाभ हो सकता है। में तो उड़ता पंछी हूँ। आज यहाँ, कल अहमदाबाद और परसों दिल्ली। फिर भी मेरा नाम लेकर जितना भला किया जा सकता है, उतना आप करना चाहें तो मैं नाहीं नहीं करता। इस मन्दिरकी हस्तीका आधार न तो धनवान हैं, न बालक हैं, और न दानकी लाखों अशर्फियाँ, उलटे अधिक अशर्फियाँ तो बाधक ही हो सकती है। मैंने खुद अपने अनुभवसे देखा है कि जब-जब बहुत आर्थिक सहायता मिली, मेरे कामोंमें विघ्न ही आये। जब दक्षिण आफ्रिकाका सत्याग्रह चल रहा था, तब ज्यों ही यहाँसे रुपये-पैसेकी वर्षा होने लगी, त्यों ही मेरे आन्दोलनकी शक्ति न जाने कहाँ चली गई। उसी तरह जिस तरह युधिष्ठिरने 'नरो वा कुंजरो वा' कहा था और उसके रथका पहिया नीचे खिसक गया था। ईश्वरने सबको २४ घंटे ही दिये हैं। और ८ घंटेकी मजदूरीसे २४ घंटेके लिए जरूरी चीजें मिल जाती हैं। इतने ही पर सबको सन्तुष्ट रहना चाहिए। इस कारण मैं बिलकुल नहीं चाहता कि इस संस्थाकी आर्थिक अवस्था अच्छी हो। इस संस्थाके पास धन सिर्फ इतना ही हो कि जिससे यहाँ काम करनेवालोंका शरीर चलता रहे और जरूरत आ पड़े तो वे उसका त्याग भी कर दें।

जिस संस्थाको बहुत-सा धन और थोड़े कार्यकर्त्ता मिल जायें उसे तो मैं 'मशरूम' (कुक्करमुत्ता)-जैसी उपज ही कहूँगा। वह चार दिन रहकर नष्ट हो जायेगी। मेरे इस कथनका तात्पर्य यह है कि जो भाई यहाँ आये हैं और जिन्होंने इस संस्थाके लिए अपने प्राणोंकी आहुति देनेकी प्रतिज्ञा की है, उन्हें चाहिए कि वे परमात्मामें भरोसा रखते हुए जमकर बैठ जायें। जब ऐसा भी मालूम हो कि अब डूबने में देर नहीं है तब भी श्रद्धापूर्वक पार जानेका प्रयत्न करते रहें; नहीं तो निश्चय ही आप हिन्दुस्तानके शापके अधिकारी होंगे। यह भव्य भवन इस गरीब देशको शोभा नहीं देगा। ऐसे मकान तो राजा-महाराजाओंको शोभा देते हैं--हिन्दुस्तानकी गरीबीमें तो बिलकुल शोभा नहीं देते। यदि हम जनताको इनके बदलेमें कुछ न दें तो जबतक जनताको