पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/२०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७७
भाषण: बढवानके बाल-मन्दिरमें

इनका कोई प्रतिदान नहीं मिलता तबतक क्या ये मकान उनके संचालकोंको खानेको नहीं दौड़ेंगे? जिस तरह जनक राजा महलोंमें रहते हुए भी त्यागी माने गये उसी तरह यदि फूलचन्दभाई और उनके साथी त्यागवृत्तिसे इसका संचालन करें तो फिर इसमें कोई हर्ज नहीं कि यह संस्था कायम हुई और उसकी नींव मेरे हाथों डाली गई। पर यदि त्याग-भाव उड़ गया और भोगको प्रधानता मिल गई तो इसका नाश निश्चित समझिए। राष्ट्रीय शाला वही है जिसके द्वारा हम स्वराज्य प्राप्त कर सकें, और जिसके शिक्षक सभी नियमोंका पालन करते हों, त्यागवृत्तिवाले हों तथा कठिन जीवन व्यतीत करते हों।

स्थानीय लोगोंने इस संस्थाकी सहायतासे हाथ खींच रखा है, यह जानकर मुझे दुःख हुआ है। आज हिंदमें प्रायः यही स्थिति प्रत्येक संस्था की है। [१] जिस संस्थाको जबतक चलानेकी जरूरत हो तबतक उसके लिए धन स्थानीय लोगोंसे मिलना चाहिए और संचालकोंको भी स्थानीय जनताको अपने कार्यसे प्रसन्न रखना चाहिए। हम जैसे स्वराज्यवादी जनसेवकोंकी स्थिति विषम है, क्योंकि वे सुधारक भी है। सुधारककी स्थिति विचित्र हो जाती है, क्योंकि वह वातावरणके अनुसार काम नहीं कर सकता। उसे आवश्यक पोषण बाहरसे ही लेना होता है। नहीं तो रंगूनके डा० मेहताका [२] बढवानकी शालासे क्या सम्बन्ध। फूलचन्दके अन्त्यज सेवा सम्बन्धी विचारोंसे परिचित रहते हुए भी बढवानके लोगोंने इसके कोषमें चन्दा दिया और फिर अब उसका बहिष्कार क्यों कर रहे हैं, यह बात समझमें नहीं आती। मैं चाहता हूँ कि वे मुझे आकर अपनी बात समझायें।

राष्ट्रीयका अर्थ होता है राष्ट्रके जीवनका पोषक। राष्ट्रीयका अर्थ इतना ही नहीं है कि केवल सरकारसे सम्बन्ध छोड़ दिया जाये--राष्ट्रीय संस्थाकी बुनियाद तो चारित्र्य है। यदि लड़कोंका ढेर लगा हो और पढ़कर उन्हें जीविका मिलने लगे तो शाला उससे भी राष्ट्रीय नहीं हो सकती। आजीविका मिले तो ठीक है; परन्तु शिक्षणका यह हेतु नहीं है कि वह आजीविका पैदा करनेकी कला सिखाये। उसका हेतु तो है बालककी आत्माको जाग्रत करना, उसे प्रकाशमें लाना, बालकके शरीर, बुद्धि और आत्माको विकसित करना। वाँकानेरकी शालामें भी बहुत लड़के दाखिल होते हैं क्योंकि उनका परीक्षा-फल शत-प्रतिशत रहता है। यह भी हो सकता है कि वहाँके शिक्षक अच्छे हों। किन्तु यह मापदण्ड कोई सही मापदण्ड नहीं है। वहाँ जो बालक दाखिल कराये जाते हैं, सो इस इच्छासे नहीं कि वे अच्छे शिक्षकोंसे नीति और सदाचरण सीखेंगे बल्कि इस आशासे दाखिल कराये जाते हैं कि योग्य शिक्षकोंसे पढ़कर वे परीक्षामें उत्तीर्ण होंगे। केवल परीक्षाके कृत्रिम शिक्षा-मापसे हमें मुक्त होना है और विद्यापीठकी स्थापना इसीलिए हुई है और राष्ट्रीय शालाका अस्तित्व भी इसीलिए है। मैं माँ-बापोंसे कहता हूँ कि ऐसी शालाओंको सहायता दीजिए और शिक्षकोंसे कहता हूँ कि आप अपने ध्येयपर दृढ़ रहिये, तपश्चर्या करिये और अपने


२६-१२
 
  1. महादेवभाईनी डायरी, भाग ७ में यह वाक्य भी है।
  2. प्राणजीवन मेहता।